ब्रह्मकमल
- गीली माटी पर बने पदचिन्ह सूख जाते हैं, मगर हिमालय की चट्टानी सतह पर नए अंकुरों का स्वागत करती है प्रकृति नभ का विस्तार सदा वैसा ही, पर धरती का श्रृंगार सदा बदला करती है प्रकृति पावस के आते ही पर्वतों के दुर्गम स्थानों मेंे सौंदर्य का नया उल्लास फटते देखा है। जून माह तक हिम आच्छादित क्षेत्र बर्फ से ढके रहते हैं। सूर्य की तपन भी बर्फ को आंशिक ही पिघला पाती है।.................लेकिन स्नेह की पतली धार की तरह मानसून की पहली झड़ी ही शेष बर्फ को पिघलाने में सहायक होती हैं। अंकुरण के इंतजार में जमीन में दबे पड़े बीज उगने लगते हैं। ये बड़ी तेजी से अपना विस्तार करते हैं.............. इतना विस्तार की वंशवृद्धि के लिए फल-फूल धारण करते हैं। बारहों महीने हिमराशी की धवलता के सौंदर्य से सजे हिमालय की गोद में 10 से 15 हजार फीट ऊंचाई तक फैले इस नैसर्गिक सौंदर्य में हरियाली की मखमली चादर बिछ जाती है। गढ़वाल हिमालय का प्राकृतिक सौंदर्य, सुरम्य दृश्यों के साथ-साथ आलौकिक दृश्यों को चार चांद लगाता हैै। हिमालय का सबसे वेज गंध वाला पुष्प ना केवल यहां उगता है बल्कि बढ़ता है, महकता भी है................. वही तो है ब्रह्मकमल .........। ब्रह्मकमल अक्सर शास्वत हिमरेखा के करीब पत्थर व चट्टानों की आड़ में खिलता है। हिमालय का यह प्राकृतिक सृजन क्रीमरंग की पंखुड़ियों में लिपटा अपेक्षाकृत बड़े आकार का पुष्प है जिसे पहाड़ों पर बेहद पवित्र और समृद्धि का प्रतीक माना गया है। इसकी पंखुड़ियों को लोग अपने घरों में शुभ शगुन और श्रीवृद्धि के लिए रखते हैं। हिमालय की घाटियों में फैले सम्पूर्ण उत्तराखंड के मंदिरों में सदियों से इसे श्रद्धा और आस्था से चढ़ाया जाता है। गढवाल में नंदा अष्टमी के दिन शिवालयों और देवालयों में अनूठा पुष्प पर्व मनाया जाता है और प्रसाद में बंटता है-ब्रह्मकमल। श्रद्धा और आस्था का जब संगम होता है तो स्नेह की पावन पतली धारा से ही प्रेम का निर्झर प्रस्फूटित प्रवाहित होता है। हां़। शायद, 'आत्म' के उत्खनन के दौरान प्रेम का पुष्प भी ऐसी ही किसी आस्था और विश्वास का प्रस्फूटन ही तो होता है। जिन्दगी में प्रेम का अहसास कब और किस मोड़ पर होगा यह कहा नहीं जा सकता पर प्रेम का सच्चा अहसास मन के खंगालने पर ही मिलता है। पर कई बार शायद हम इसमें बहुत देर कर देते हैं....... मन का ऐसा मंथन निर्मल मना कमल जैसे इस उपन्यास के पात्र ही कर सकते हैं..... प्रेम का बीज मन रूपी धरती पर सबके अन्दर दबा रहता है-जैसे ब्रह्मकमल का सुप्त बीज। और ब्रह्मकमल की तरह प्रेम का पवित्र बीज भी स्नेह की पतली धारा में भीगना चाहता है। अंकुरण की चाह में दिल की जमीन में दबा सुप्त पड़ा रहता है......... बस जरूरत है यह समझने की कि प्रेम पाने की पात्रता, प्रेम देने की क्षमता से आती है और हम पाना तो चाहते हैं देने में चूक जाते हैं........... जीवन का राम, जीवन का रंग, जीवन का प्रतीक होता है प्रेम जो प्रसाद होता है मन मंदिर का। उपन्यास यथार्थ की तमाम संभावित सतहों के आर-पार स्त्री की इच्छा को टोहता है। मानव के सामाजिक यथार्थ के परे एक प्लेटोनिक प्रेम तत्व के आसपास विस्तार पाता है। आप गौर से देखेंगे तो इस उपन्यास में कोई भी पात्र प्रेम के यथार्थ से आंख नहीं चुराता बल्कि उसे कुछ अतिरिक्त निष्ठा से निभाता ही है............. कुछ इसी तरह............... हिमालय की चोटियों पर भोर होते से सांझ ढले तक जब, मंदिरों से घंटे और शंखों की आवाज आती है चट्टानों के बीच अचानक कई ब्रह्मकमल खिल उठते हैं प्रकृति के ये प्रस्फूटन होते हैं कितने पवित्र ? इतने पवित्र की आस्था और विश्वास के साथ श्रद्धा के फूल बन जाते हैं-ब्रह्मकमल। स्वाति तिवारी[ उपन्यास से ]
आपके ब्लॉग पर आना अच्छा अनुभव रहा
जवाब देंहटाएं---
गुलाबी कोंपलें