कहानी
एक ताजा खबर
डॉ.स्वाति तिवारी
''हम बाजार में खड़े हैं, बाजार के लिए ही काम करते हैं, हमारे घर का चूल्हा हमारी स्टोरी के बिकने पर जलता है। क्या करें... भाभी जिस समाज का समूचा ढांचा ही दोहरे मानदण्डों पर टिका है वहां अपने आदर्श नहीं चलते..... आदेश रखने पड़ते हैं ताक में.... अखबार का मालिक निकाल फेंकता है आदर्शवादी पत्रकारों को.... अब आप तो सब जानती हैं .... इसी माहौल से रोज दो चार होती हैं... भैया का देखती तो है रोज संघर्ष करते हुए... वो तो इनकी सरकारी नौकरी है वरना दाल रोटी इतनी आसान नहीं... अरे आत्मा को मारना पड़ता है....'' इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने वाले समीर भैया ने ..... क्या सचमुच आत्मा को इस हद तक मार डाला.... या केवल दोहरे मानदण्डों के चलते वे... इतने और इस कदर दिखावटी हो गये कि अपनी पत्नी की मृत्यु और बीमारी तक को भुनाने में जुटे हैं?.... मैं तय नहीं कर पा रही थी कि ये वही समीर भैया हैं जो सुनयना भाभी की आत्मा में बसते थे?
''छोड़ो भी.... तुम भी क्यों समीर के पीछे हाथ धोकर पड़ी हो.... वो जाने और उसका काम।'' पति ने मेरी बात को खारिज सी करते हुए कहा।
नहीं अमर... मेरा मन इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है... पच्चीस साल का साथ था समीर सुनयना का... पच्चीस दिन भी नहीं लगे पत्नी के दुख से बाहर आने में....सवा महीने तो दुश्मन भी दुख पालते हैं.. पत्नी थी सुनयना... उनकी। गमले में पौधा भी सुखे तो मन दुखता है... और समीर है कि दूसरी शादी कर रहा है?
''वो तो सुनयना के मरने से पहले ही कर लेता यदि उसको समझाया ना होता..तो।''
''क्या....़.?''
''हॉ ़। मैं तुम्हें बताना नहीं चाहता था, पर सच यही है वो पिछले एक साल से वहां जाने लगा था..... प्रेस यूनियन के चुनाव का वास्ता देकर रोका था उसको।''
पत्नी की बीमारी और वह भी कैंसर एक सहानुभूति थी सबकी इसके साथ .. वोट भी विश्वास के कम सहानुभूति के ही ज्यादा मिले थे... लोगों ने सोचा था दुख से बाहर आने में बेचारे को मदद मिलेगी... पर हम जानते हैं ये अपनी आदतों से बाज नहीं आने वाला। जानती हो जब किमो थेरेपी चल रही थी सुनयना की.... अस्पताल छोड़ मेरे दफ्तर में बैठा रहा- ''यार अमर.. कल सी.एम. को एयरपोर्ट से सीधे अस्पताल ले आना सुनयना को देखने....। अस्पताल और परिवार पर अच्छा रुतबा रहेगा यार। और फिर प्रेस यूनियन के चुनाव पर भी दबाव पड़ेगा। सी.एम. से सीधे संबंध होने का। एक बार प्रेस यूनियन की कुर्सी हाथ में आ जाए फिर देखना उस प्रेस की नौकरी का मिजाज ही बदल दूंगा। और सबसे पहले तो उस चूतिए सम्पादक को निपटाऊंगा साल्ला........ दो कौड़ी का......। हर स्टोरी को कांट-छांट देता है.. जहां कमाने की जरा सी गुंजाइश दिखी नहीं न्यूज एडिट कर देता है... उसकी तो....।'' पूरा दिन वो इसी जुगाड़ में लगा रहा ... कि एक बार सी.एम. उसके घर या अस्पताल चले जाएं। चेले चपाटे अलग लगा रखे थे सी.एम. की अगवानी की न्यूज और बाइट कवर करने के लिए.... नम्बर एक का नाटकबाज है.... पर क्या करें़। आप समझा उसको सकते हैं जो समझना चाहे-समीर जैसों को समझाना संभव नहीं।
हाँ मेरे पास भी फोन आया था समीर का उस दिन ''भाभी आप सुनयना के पास ही रहना...।'' बड़ा बुरा लगा था उस दिन भी मुझे..... मौत के दरवाजे पर खड़ी पत्नी के साथ उसका दर्द बांटने के बजाए समीर बीमारी को भी भुनाता रहा। पत्रकार कोटे का पैसा, मेडिकल क्लेम और दया तथा सहानुभूति के नाम पर पैसा? अरे पूछो मत चंदा उगाई से उसने इतना पैसा बनाया है कि .... बस।
''पर इलाज के खर्चे?''
''वो..... वो तो सुनयना भाग्यवान थी कि वो बड़े घर की बेटी थी..... उसका इलाज तो पिता और भाई ही करवाते रहे और उसकी नौकरी भी थी। ये तो अस्पताल भी ऐसे जाता था जैसे हम जाते हैं हाल पूछने।''
..... मेरी आंखों में उठावने का दृश्य सजीव हो उठा.... मैं सुबह से ही सुनयना की 15 साल की बेटी के साथ थी.... वो मम्मी के सदमे में डिप्रेशन में जाने लगी थी.... बुखार भी आ गया था उसको। पर समीर भाई ..उठावने की तैयारी में ऐसे जुटे थे जैसे घर में जश्न हो...... शहर का सबसे बड़ा क्लब ग्राउंड.....उस पर टेन्ट...सफेद चादरें..... रामधुन के कैसेट। सुनयना का बड़ा सुनहरी फ्रेम वाला फोटो... गुलाब के हार, गुलाब के फूलों की टोकरी, मोगरे की चंदन की अगरबत्तियाँ.... काला चश्मा ....लोगों को लगातार फोन पर याद दिलाते रहे कि आज शाम चार बजे उठावना है... फोन के अलावा..... भोपाल तक राजनीति की बीबी की मौत की.... और तो और ..... सफेद कुर्ता पाजामा चार बार बदला था नहीं जमा तो खड़े दम नया खरीदा गया......... उठावने के लिए। हद तो तब हुई जब बेटे ने विद्रोह का पहला स्वर उठाया था--''पापा आप अस्थि संचयन में चलेंेगे या कुर्ता पाजामा ही बदलते रहेंगे। '' दंग रह गई थी मैं ....... बजाय खुद गिल्टी होने के वे विपिन पर झपटे थे......'' एक लगाऊंगा साले..... मुझे आंख दिखाता है..... दिखता नहीं यहां इतने लोग आने वाले हैं--मामा के साथ चला जा और रवि चाचा और संजय मामा और विनय मौसा को हरिद्वार रवाना करवा दे-- मैं यहीं हूं। मुझे तब लगा था पत्नी की मृत्यु से टूटे हुए हैं समीर भाई....। अग्निदहन के बाद अस्थि बटोरने के लिए हिम्मत नहीं है उनमें अपनी पत्नी की राख में तब्दील देह को वे देखना नहीं चाहते शायद। कैसी रेशम सी नाजुक थी सुनयना... कितनी यादें होंगी समीर के मन में उस रेशमी देह की दिवानगी की। पर अस्थिकलश को जब विपिन
लेकर आया तो सब फूट-फूट कर रो पड़े थे पर समीर .....? उसने तो देखा तक नहीं......क्या रिश्ते इतने कमजोर होते हैं या कि संवेदना की खबरें बेचाने वाले समीर के अंदर की संवेदनाएं ही मर गई थीं....। टोका था मैंने ''समीर भाई क्या हो गया है आपको...... अखबार की न्यूज नहीं थी सुनयना जो छपने तक मायने रखती थी आपके लिए। ये आपकी जीवनसंगिनी की अस्थियां हैं ये आपका स्पर्श चाहती हैं अभी धरती पर ही हैं.... गंगाजल में विलय के बाद आपसे नाता टूटेगा... आप पत्थर हो गए हो क्या? आपके उन थोथे आदर्शों का क्या हुआ जिनमें बौद्धिकता, भावनात्मक प्रतिबद्धता, संवेदनात्मक बातें होती थीं।''
समीर मुस्कुराया था उस वक्त.... फिर मेरे कान में बुदबुदाया था भाभी सच ये है कि चार साल तक सुनयना की बीमारी से मैं फ्रस्टेट हो गया था और एक ऐसी बीमारी
जिसका आउटपुट कुछ नहीं था मैं जल्दी से जल्दी मुक्त होना चाहता हूं इस सब से।
मैं उठावने के बाद घर आ गयी थी। मानसिक तौर पर पर टूट गई थी।........
पर ये खबर तो और भी हजम नहीं हो रही थी.......। मुझे जब शाम को अमर ने
पूछा चल रही हो समीर की पार्टी में...... कोर्ट में शादी कर ली है उसने...... मैंने घूर कर अमर को देखा था...... मैं मर गई तो शायद अमर भी..... पर पूछ नहीं पायी....... क्योंकि सच कड़वा ही हो सकता था या फिर झूठा। और दोनों ही मुझे बर्दाश्त नहीं।.... अमर ने फिर पूछा था ''चलोगी.......।''
नहीं। अभी अभी तो सुनयना की तेंरहवीं में उसके मायके गौरनी जिमने गई थी मैं......... उसके नाम का सुहागन भोज जिमने के बाद इतनी जल्दी नया रिश्ता मैं नहीं जोड़ सकती...... तुम जाओ तुम्हारी मर्जी हो तो...... फिर बचपन का दोस्त है समीर।''
मुझे लगा सुनयना का क्या? सच तो यह है कि आज फैक्ट और फिक्शन में कोई फर्क नहीं रह गया है-- हम एक खबर की तरह हो गए हैं........ जहां सुनयना की मृत्यु एक बासी खबर .......... ताजा खबर ये है कि...............समीर ने जिससे शादी की वो सुनयना की ही खास......सहकर्मी जो तलाकशुदा थी और .........अक्सर सुनयना के पति के मीडिया में होने से उसकी किस्मत पर जलती थी। और हां......समाचार मीडिया में टैबलायडाइजेशन की प्रवृत्ति अब पुरानी हो गई है नयी बात यह है कि समाचार जगत में सार्वजनिक मसलों से बचकर नितान्त व्यक्तिगत जीवन, उसकी पीड़ा, संबंधों की जायजता और नाजायजता की कहानियां बनाकर बेचने वाला निहायत ही असंवेदनशील पत्रकार समीर अब अपनी नयी बीबी के दफ्तर में उसकी दादागीरी के लिए उसका स्टेट्स हो गया है।
पर मेरी संवेदना का क्या करूं मेरे अंदर पुरानी खबर से लड़ती रही समीर की नयी खबर।
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डॉ. स्वाति तिवारी
एक ताजा खबर
डॉ.स्वाति तिवारी
''हम बाजार में खड़े हैं, बाजार के लिए ही काम करते हैं, हमारे घर का चूल्हा हमारी स्टोरी के बिकने पर जलता है। क्या करें... भाभी जिस समाज का समूचा ढांचा ही दोहरे मानदण्डों पर टिका है वहां अपने आदर्श नहीं चलते..... आदेश रखने पड़ते हैं ताक में.... अखबार का मालिक निकाल फेंकता है आदर्शवादी पत्रकारों को.... अब आप तो सब जानती हैं .... इसी माहौल से रोज दो चार होती हैं... भैया का देखती तो है रोज संघर्ष करते हुए... वो तो इनकी सरकारी नौकरी है वरना दाल रोटी इतनी आसान नहीं... अरे आत्मा को मारना पड़ता है....'' इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने वाले समीर भैया ने ..... क्या सचमुच आत्मा को इस हद तक मार डाला.... या केवल दोहरे मानदण्डों के चलते वे... इतने और इस कदर दिखावटी हो गये कि अपनी पत्नी की मृत्यु और बीमारी तक को भुनाने में जुटे हैं?.... मैं तय नहीं कर पा रही थी कि ये वही समीर भैया हैं जो सुनयना भाभी की आत्मा में बसते थे?
''छोड़ो भी.... तुम भी क्यों समीर के पीछे हाथ धोकर पड़ी हो.... वो जाने और उसका काम।'' पति ने मेरी बात को खारिज सी करते हुए कहा।
नहीं अमर... मेरा मन इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है... पच्चीस साल का साथ था समीर सुनयना का... पच्चीस दिन भी नहीं लगे पत्नी के दुख से बाहर आने में....सवा महीने तो दुश्मन भी दुख पालते हैं.. पत्नी थी सुनयना... उनकी। गमले में पौधा भी सुखे तो मन दुखता है... और समीर है कि दूसरी शादी कर रहा है?
''वो तो सुनयना के मरने से पहले ही कर लेता यदि उसको समझाया ना होता..तो।''
''क्या....़.?''
''हॉ ़। मैं तुम्हें बताना नहीं चाहता था, पर सच यही है वो पिछले एक साल से वहां जाने लगा था..... प्रेस यूनियन के चुनाव का वास्ता देकर रोका था उसको।''
पत्नी की बीमारी और वह भी कैंसर एक सहानुभूति थी सबकी इसके साथ .. वोट भी विश्वास के कम सहानुभूति के ही ज्यादा मिले थे... लोगों ने सोचा था दुख से बाहर आने में बेचारे को मदद मिलेगी... पर हम जानते हैं ये अपनी आदतों से बाज नहीं आने वाला। जानती हो जब किमो थेरेपी चल रही थी सुनयना की.... अस्पताल छोड़ मेरे दफ्तर में बैठा रहा- ''यार अमर.. कल सी.एम. को एयरपोर्ट से सीधे अस्पताल ले आना सुनयना को देखने....। अस्पताल और परिवार पर अच्छा रुतबा रहेगा यार। और फिर प्रेस यूनियन के चुनाव पर भी दबाव पड़ेगा। सी.एम. से सीधे संबंध होने का। एक बार प्रेस यूनियन की कुर्सी हाथ में आ जाए फिर देखना उस प्रेस की नौकरी का मिजाज ही बदल दूंगा। और सबसे पहले तो उस चूतिए सम्पादक को निपटाऊंगा साल्ला........ दो कौड़ी का......। हर स्टोरी को कांट-छांट देता है.. जहां कमाने की जरा सी गुंजाइश दिखी नहीं न्यूज एडिट कर देता है... उसकी तो....।'' पूरा दिन वो इसी जुगाड़ में लगा रहा ... कि एक बार सी.एम. उसके घर या अस्पताल चले जाएं। चेले चपाटे अलग लगा रखे थे सी.एम. की अगवानी की न्यूज और बाइट कवर करने के लिए.... नम्बर एक का नाटकबाज है.... पर क्या करें़। आप समझा उसको सकते हैं जो समझना चाहे-समीर जैसों को समझाना संभव नहीं।
हाँ मेरे पास भी फोन आया था समीर का उस दिन ''भाभी आप सुनयना के पास ही रहना...।'' बड़ा बुरा लगा था उस दिन भी मुझे..... मौत के दरवाजे पर खड़ी पत्नी के साथ उसका दर्द बांटने के बजाए समीर बीमारी को भी भुनाता रहा। पत्रकार कोटे का पैसा, मेडिकल क्लेम और दया तथा सहानुभूति के नाम पर पैसा? अरे पूछो मत चंदा उगाई से उसने इतना पैसा बनाया है कि .... बस।
''पर इलाज के खर्चे?''
''वो..... वो तो सुनयना भाग्यवान थी कि वो बड़े घर की बेटी थी..... उसका इलाज तो पिता और भाई ही करवाते रहे और उसकी नौकरी भी थी। ये तो अस्पताल भी ऐसे जाता था जैसे हम जाते हैं हाल पूछने।''
..... मेरी आंखों में उठावने का दृश्य सजीव हो उठा.... मैं सुबह से ही सुनयना की 15 साल की बेटी के साथ थी.... वो मम्मी के सदमे में डिप्रेशन में जाने लगी थी.... बुखार भी आ गया था उसको। पर समीर भाई ..उठावने की तैयारी में ऐसे जुटे थे जैसे घर में जश्न हो...... शहर का सबसे बड़ा क्लब ग्राउंड.....उस पर टेन्ट...सफेद चादरें..... रामधुन के कैसेट। सुनयना का बड़ा सुनहरी फ्रेम वाला फोटो... गुलाब के हार, गुलाब के फूलों की टोकरी, मोगरे की चंदन की अगरबत्तियाँ.... काला चश्मा ....लोगों को लगातार फोन पर याद दिलाते रहे कि आज शाम चार बजे उठावना है... फोन के अलावा..... भोपाल तक राजनीति की बीबी की मौत की.... और तो और ..... सफेद कुर्ता पाजामा चार बार बदला था नहीं जमा तो खड़े दम नया खरीदा गया......... उठावने के लिए। हद तो तब हुई जब बेटे ने विद्रोह का पहला स्वर उठाया था--''पापा आप अस्थि संचयन में चलेंेगे या कुर्ता पाजामा ही बदलते रहेंगे। '' दंग रह गई थी मैं ....... बजाय खुद गिल्टी होने के वे विपिन पर झपटे थे......'' एक लगाऊंगा साले..... मुझे आंख दिखाता है..... दिखता नहीं यहां इतने लोग आने वाले हैं--मामा के साथ चला जा और रवि चाचा और संजय मामा और विनय मौसा को हरिद्वार रवाना करवा दे-- मैं यहीं हूं। मुझे तब लगा था पत्नी की मृत्यु से टूटे हुए हैं समीर भाई....। अग्निदहन के बाद अस्थि बटोरने के लिए हिम्मत नहीं है उनमें अपनी पत्नी की राख में तब्दील देह को वे देखना नहीं चाहते शायद। कैसी रेशम सी नाजुक थी सुनयना... कितनी यादें होंगी समीर के मन में उस रेशमी देह की दिवानगी की। पर अस्थिकलश को जब विपिन
लेकर आया तो सब फूट-फूट कर रो पड़े थे पर समीर .....? उसने तो देखा तक नहीं......क्या रिश्ते इतने कमजोर होते हैं या कि संवेदना की खबरें बेचाने वाले समीर के अंदर की संवेदनाएं ही मर गई थीं....। टोका था मैंने ''समीर भाई क्या हो गया है आपको...... अखबार की न्यूज नहीं थी सुनयना जो छपने तक मायने रखती थी आपके लिए। ये आपकी जीवनसंगिनी की अस्थियां हैं ये आपका स्पर्श चाहती हैं अभी धरती पर ही हैं.... गंगाजल में विलय के बाद आपसे नाता टूटेगा... आप पत्थर हो गए हो क्या? आपके उन थोथे आदर्शों का क्या हुआ जिनमें बौद्धिकता, भावनात्मक प्रतिबद्धता, संवेदनात्मक बातें होती थीं।''
समीर मुस्कुराया था उस वक्त.... फिर मेरे कान में बुदबुदाया था भाभी सच ये है कि चार साल तक सुनयना की बीमारी से मैं फ्रस्टेट हो गया था और एक ऐसी बीमारी
जिसका आउटपुट कुछ नहीं था मैं जल्दी से जल्दी मुक्त होना चाहता हूं इस सब से।
मैं उठावने के बाद घर आ गयी थी। मानसिक तौर पर पर टूट गई थी।........
पर ये खबर तो और भी हजम नहीं हो रही थी.......। मुझे जब शाम को अमर ने
पूछा चल रही हो समीर की पार्टी में...... कोर्ट में शादी कर ली है उसने...... मैंने घूर कर अमर को देखा था...... मैं मर गई तो शायद अमर भी..... पर पूछ नहीं पायी....... क्योंकि सच कड़वा ही हो सकता था या फिर झूठा। और दोनों ही मुझे बर्दाश्त नहीं।.... अमर ने फिर पूछा था ''चलोगी.......।''
नहीं। अभी अभी तो सुनयना की तेंरहवीं में उसके मायके गौरनी जिमने गई थी मैं......... उसके नाम का सुहागन भोज जिमने के बाद इतनी जल्दी नया रिश्ता मैं नहीं जोड़ सकती...... तुम जाओ तुम्हारी मर्जी हो तो...... फिर बचपन का दोस्त है समीर।''
मुझे लगा सुनयना का क्या? सच तो यह है कि आज फैक्ट और फिक्शन में कोई फर्क नहीं रह गया है-- हम एक खबर की तरह हो गए हैं........ जहां सुनयना की मृत्यु एक बासी खबर .......... ताजा खबर ये है कि...............समीर ने जिससे शादी की वो सुनयना की ही खास......सहकर्मी जो तलाकशुदा थी और .........अक्सर सुनयना के पति के मीडिया में होने से उसकी किस्मत पर जलती थी। और हां......समाचार मीडिया में टैबलायडाइजेशन की प्रवृत्ति अब पुरानी हो गई है नयी बात यह है कि समाचार जगत में सार्वजनिक मसलों से बचकर नितान्त व्यक्तिगत जीवन, उसकी पीड़ा, संबंधों की जायजता और नाजायजता की कहानियां बनाकर बेचने वाला निहायत ही असंवेदनशील पत्रकार समीर अब अपनी नयी बीबी के दफ्तर में उसकी दादागीरी के लिए उसका स्टेट्स हो गया है।
पर मेरी संवेदना का क्या करूं मेरे अंदर पुरानी खबर से लड़ती रही समीर की नयी खबर।
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डॉ. स्वाति तिवारी
हम सब एक खबर हो गये हैं. सच कहा. कहानी के माध्यम से आज का सच कह दिया आपने.
जवाब देंहटाएंआश्चर्य है स्वाति जी ...ठीक ऐसी घटना मेरे सामने वाले माकन में हुई ..बस अंतर इतना है की वो फारेस्ट मे ऑफिसर हैं ..उनकी पत्नी का निधन केंसर से हुआ और उन्होंने तीन महीने के अन्दर दूसरी शादी कर ली वो भी उनके ऑफिस में काम करने वाली बिधवा से जो उनकी पत्नी की अछि मित्र भी थी ..मैंने भी आहत हो कर इस पर एक कहानी लिखी है .. लोग कहते हैं की पत्नी के मरने से पहले ही उस महिला से उनके सम्बन्ध थे ...अब उनोने बच्चों को होस्टल भेज दिया है
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