जीवन की तीन
बचपन की मेरी महत्वाकांक्षाएं
बगुले के पंखों सी उज्जवल ,
सुबह की कच्ची धूप सी रुपहली
और,
मासूम कलि सी कोमल थी
जो,
सागर सी गहरी
आकाश सी अनंत
धरा सी धेर्यवान
और ,पंछी सी नादाँ थी
योवन की मेरी महत्वाकांक्षाएं
जो, दोपहर की धूप सी ज्वलंत हें
आकाश सी बिना छोरवाली
शितिज सी सुन्दर पर
मृगमरीचिका सी मिथ्या है
समाज के राक्षसी पंजों में फंसी
मुरझाई जीवन मूल्यों से संघर्ष करती
कली की तरह है ,और
आगे मेरी वृद्धा होती महत्वाकांक्षाएं
जो
होगीं सांज की ढलती कलासयी
धूप सी निस्तेज
सागर की गहराई से निकल
आकाश में उड़ी और ,
धरा पर गिरने वाली
पानी की नन्ही बूंदों सी
जो स्पर्श पाते ही
बिखर जाती है
बहुत ही सुन्दर खूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंwaah Swati ji bahut sundar kavita...bhavon se bhari
जवाब देंहटाएंtaiji aapka blog dekh raha hn
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