सद्भाव-सौहार्द्र के फैसले                                                       डा. स्वाति तिवारी
आजकल वातावरण में एक भय की अनजानी सी लहर व्याप्त है। हालात 1992 जैसे नहीं रहे। वर्तमान समाज काफी समझदार हो गया है, फिर भी लोग सतर्क हैं - राशनपानी के बन्दोबस्त हो रहा है। पता नहीं, कब कहाँ - क्या हो जाए? साम्प्रदायिक विद्वेष की जो कीमत समान ने चुकाई है, उसके बाद नागरिकों की सतर्कता, उनमें व्याप्त भय की लहर स्वाभाविक है। 28 सितम्बर की तारीख यदि उन्हें डरा रही है, जिस दिन अयोध्या की विवादित भूमि के मालिकाना हक को लेकर उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट की लखनऊ शाखा का निर्णय आना है, तो इसमें अस्वाभाविक खैर कुछ भ्ज्ञी नहीं है।
एक फोन था - 28 के बाद प्रोग्राम रखना - अभी मत भेजना बहू को। 24 के फैसले के बाद देखते हैं कि क्या होता है? गैस की टंकी मंगवा दो, पता नहीं बाद में मिले ना मिले? आते वक्त दूध के पावडर का पैकेट लेते आना, पड़ा रहेगा घर में। ऐसे न जाने कितने संवाद हैं, जो प्रायः सभी घरों में सुनने को मिल रहे हैं और रोज नई-नई आशंकाओं को जन्म दे रहे हैं। हम एक देश में रहते हैं। हिन्दू की गाड़ी का ड्रायवर मुसलमान है। हिन्दू की फैक्ट्री में मुसलमान मजदूर है। मुसलमान व्यापारी है, तो उसका सबसे भरोसेमंद मुनीम कोई हिन्दू है। यही तो है भारत की गंगा-जमुनी संस्.ति, जिसकी तारीफ पूरी दुनिया करती है। कहीं-कहीं तो दो घरों के बीच की एक दीवार है जिस पर एक तरफ राम, लक्ष्मण, शंकर पार्वती के फोटो लगे हैं, तो दूसरी तरफ मक्का मदीना की मीनार वाली तस्वीर है।
एक तरफ आले में कुरान शरीफ रखी है, तो दूसरी तरफ रामायण और गीता। नल एक है, ओटले एक हैं, एक के बिना दूसरे का काम न कभी चला थ, न आज चल रहा है, न भविष्य में चलेगा, पर भय दोनों में व्याप्त है। क्या यह तस्वीर भारतीय धर्मनिरपेक्षता के मूल घोषित लक्ष्य ''सर्वधर्म समभाव'' का चित्र नहीं है? अगर है, तो भय किस बात का है? सांप्रदायिकता ने राष्ट्र की लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष संरचना को गम्भीर चुनौती दी है कि एक दीवार के दोनों पहलू डरे हुए हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ शाखा के फैसले के बाद ऐसा होना क्या है, जिससे समाज डरा हुआ है? सबको पता है कि विवादित भूमि पर स्वामित्व को लेकर पिछले 60 साल से यह मामला अदालत में विचाराधीन है। बीते माह सुनवाई पूरी होने पर कोर्ट ने मामले पर फैसला सुरक्षित रख लिया था। यह फैसला आना है, एक जमीन को लेकर। यह जमीन सरयू नदी के किनारे आधुनिक फैजाबाद जिले के अयोध्या नगर में है। अगर सरयू नदी की बात करें, उससे किसी ने पूछा कि तू कौन-धर्म है नदी है? धरती से किसी ने पूछा कि तू किस धर्म में जाना चाहती है? फिर फैसले और मुकदमे तो आदमी के अहंकार के होते हैं। लड़ते भी वही हैं और निर्णय भी वही करते हैं। यह सही है कि भगवान राम का अयोध्या में ही जन्म हुआ था, पर आज वह अयोध्या के साथ-साथ हरेक भारतीय के दिल में बसे हैं और ईश्वर की अराधना के लिए मन-मंदिर ही सबसे ज्यादा पवित्र होता है। किसी भी तीर्थ व किसी भी पूजाघर से ज्यादा।
हमारे संविधान निर्माता जब देश को धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर खड़ा कर रहे थे, तब आशा की गई थी कि धर्म को सभी नागरिक समझेंगे कि वह है क्या? लेकिन आजकल 'धर्म' शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग होता है, उसके साथ सच्चे धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म का वास्तविक अर्थ है - वे कर्तव्य, वे कर्म जिनके द्वारा मानव का विकास सम्भव होता है, मानवजाति का भविष्य उज्ज्वल से उज्ज्वलतम होता जाता है। भारत के ऋषियों ने धर्म की चर्चा करते समय न लोक-परलोक का उल्लेख किया है, न आत्मा का, न ही परमात्मा का। उन्होंने धर्म के लक्षणों के नाम पर यम-नियम की बात कहकर सब कुछ मानव मन के विवेक पर छोड़ दिया है - ''धर्मस्य तत्वम निहितं गुह्यायाम्, महाजनों येन गता स पन्थ।'' लोक-समत्त .ष्टि से कहा गया है कि ''परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।'' कहने का अर्थ यही है कि हम सब धरती पर प्राणी मात्र हैं, न हिन्दू हैं, न मुसलमान हैं।
मानव मात्र का एक ही धर्म है वह है मानवता, इन्सानियत। इमारतों और जमीन के आधिपत्य के लिए उसके मन्दिर या मस्जिद होने के लिए क्या मानवता को ताक पर रख दिया जाना चाहिए? धर्म मन का होता है, लेकिन हम उसे मजहब, पंथ, सम्प्रदाय, मिल्लत के रूप में आडम्बर में बदल देते हैं। धर्म संस्थागत नहीं होते, बल्कि आस्थागत होते हैं। आस्था व्यक्ति में, उसकी आत्मा में निवास करती है, किसी जगह या इमारत में नहीं। जमीन का धर्म, भूमि का धर्म केवल एक होता है और वह है, उस पर जन्म लेने वाले को जगह देना, पोषण देना और अंत में खुद में समाहित कर लेना। भूमि किसी मंदिर की हो या मस्जिद की या फिर किसी और पूजास्थल की, वह भारत की है, केवल भारत की। उसे सभी की मान लेना चाहिए।
मतलब, अयोध्या विवाद पर चाहे कोई भी फैसला आए, समाज को हर हालत में सद्भाव-सौहार्द्र और शांति बनाए रखनी होगी, पर अभी फैसला आया भी नहीं है और आतंक पसर गया है। बचपन के अजीज दोस्त अहमद और किशन दूर-दूर हैं, नज़रें चुरा रहे हैं। अहमद अन्दर से दुखी भी है, क्योंकि उसकी अम्मी जब अस्पताल में थीं तो किशन ने एक हफ्ते तक सगी माँ की तरह देखभाल की थी। अहमद तो कोलकाता से जब आया था, तब तक अम्मी अस्पताल से घर आ गयी थीं और जब किशन की नौकरी छूट गयी थी, तो नए बिजनेस के लिए अहमद ही था, जिसने साथ दिया था। अयोध्या तो दूर है, उनके शहर से बहुत दूर, पर उनके रिश्ते करीबी हैं। एक फैसला उनके बचपन के लंगोटिया यारों को कैसे अलग कर सकता है? कल ही की तो बात है विनोद अपने पिता से कह रहा था बाबा मेरी शादी में बशीर का बैण्ड और खान साहब की घोड़ी ही बुलवाना कैसे शान से चलती है?
वहीं, रजिया की जिद है कि वह अपनी शादी का जोड़ा विमल भाई की दुकान से ही लेगी, उसे वहीं के कपड़े पसंद हैं। क्या कोई कह सकता है कि हम हिन्दू हैं, इसलिए बशीर का बैंड नहीं बजवाएंगे। हम मुसलमान हैं, इसलिए विमलभाई से कपड़ा नहीं लेंगे। जिन फूलों का सेहरा या गजरा बनता है, वे फूल न हिन्दू से पचिचित हैं, न मुसलमान से, इसलिए इस वक्त हम सब भी एक हैं। सद्भावना से बड़ा धर्म कोई नहीं। अमन और शान्ति ही हमारे विकास का मार्ग है। हमें ईश्वरने जो पहचान दी है, वह यह है कि हम मनुष्य हैं। न हमारे रक्त के रंग में अंतर है, न शारीरिक वनावट में। यदि ईश्वर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद करना चाहता होता, तो वह कुछ तो हमारी शारीरिक बनावट में ऐसा भेद करता ही कि हिन्दू को अलग और मुसलमान को अलग से पहचाना जा सकता होता। हमें इस बात को ठीक से समझें, ताकि सरकारों को अपनी ऊर्जा सद्भाव बनाने में खर्च न करनी पड़े। प्रेम से रहने की जिम्मेदारी नागरिकों की है, हम उसे उठाएं भी।

डा. स्वाति तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. 24 सितम्बर को मैं द्वारका(गुजरात)में था। वहाँ मुसलमानों की संख्या कम नहीं है। 25 सितम्बर को हमने भेंट द्वारका टापू, वहाँ की भाषा में जिसे बेट द्वारका कहा जाता है, की यात्रा की। बताया गया कि भेंट द्वारका की कुल आबादी लगभग 7000 है जिसमें मात्र 1000 हिन्दू हैं। मुसलमानों का मुख्य व्यवसाय समुद्र से मछली पकड़ना है, पंडों का मुख्य व्यवसाय जमीन से मछली(यानी श्रद्धालु) पकड़ना है। इन दोनों ही तरह की मछलियों की उक्त क्षेत्र में कोई कमी ईश-कृपा से नहीं है। क्योंकि दोनों का व्यवसाय ठीक चल रहा है शायद इसीलिए दोनों ही स्थानों पर हमने अयोध्या-विवाद का कोई असर नहीं देखा जबकि टीवी पर लगातार खबरें आ रही थी। द्वारका रेलवे स्टेशन जिस ऑटो में बैठकर पहुँचे उसे मौहम्मद असलम चला रहे थे जो चार बेटियों के पिता थे। दो बेटियों की शादी कर चुके थे, दो अभी पढ़ रही हैं। मौहम्मद असलम का जन्म भी द्वारका में ही हुआ था। डर अथवा संशय न उनके चेहरे पर था और न बातों में। कहने लगे ऊपर वाले की दुआ से दो रोटी चैन से कमा लेते हैं; बैंक से लोन लेकर ऑटो लिया था--सब चुका दिया, ऑटो अब अपना है। द्वारका से जामनगर, जामनगर से अहमदाबाद और अहमदाबाद से यहाँ दिल्ली-शाहदरा आ जाने तक मुझे सब कुछ सामान्य ही लगा। जो लोग संशयभरी बातें करते हैं वे न तो सही अर्थ में इन्सान हैं न भारतीय।

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