अकेले होते लोग’’
आधुनिक सभ्य समाज में मनुष्य अपनी ही जड़ों से दूर होता जा रहा है और उसके आसपास अकेलेपन का रहस्यात्मक सन्नाटा छा रहा है। पीढ़ियों में अंतर और अन्तराल तो सदियों से रहे हैं - पर परिवार में कटते रिश्तों के जंगलों का उजाड़पन भय और पीड़ा दे रहा है। ‘‘अकेले होते लोग’’ कृति में युवा कथा लेखिका डॉ. स्वाति तिवारी ने इसी मर्म की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करने की कोशिश की है।
‘‘अकेले होते लोग’’ आज के आस्थाहीन समाज में सत्य और अकेलेपन के संकट को और जीवन मूल्यों में आई डगमगाहट को एक संदेशात्मक लहजे में पूरी रोचकता और पढ़ने की जिज्ञासा के साथ परिभाषित करती है। यह पुस्तक समग्र स्वरूप में अकेलेपन से बचाने और बचने पर केन्द्रित है जिसे दो खण्डों में प्रस्तुत किया गया है। दोनों ही खण्ड एकदम अलग शैली में हैं । एक विश्लेषणात्मक है तो दूसरा कथा-व्यथा किन्तु पाठक को इससे कोई व्यवधान नहीं होता अपितु वह इसमें रमता जाता है। यह एक तरह का नवीन प्रयोग है जो आध्यात्मिक चिन्तन को नए स्वरूप में प्रस्तुत करने के साथ ही जाने अनजाने समाज द्वारा समाज के ही केन्द्रीय पात्रों को जीवन का यर्थात कहकर जीवन के हाशिए पर पटक दिए जाने का एक साझा, कालगत और परिवेशगत विश्लेषण है। यह उन लोगों की कहानी है जिनकी अपनी पीड़ा है, अपने दर्द हैं, अपने तर्क हैं, अपने तरीके हैं जिनका सरोकार सम्पूर्ण मानव जाति से है। यह पुस्तक वृद्धावस्था में पसरती असुरक्षा और बेचैनी को सही परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करती है जिस प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है। दुनिया केवल युवा पीढ़ी की ताजगी-स्फूर्ति पर ही नहीं टिकी हुई है- वहाँ उम्र की झुरियाँ के अनुभव भी संबल बनते आए हैं। यह पुस्तक हमें अपने अन्तरतम तक झाँकने की दृष्टि प्रदान करती है और लगता है हम शब्दों के साथ एक यात्रा कर रहे हैं।
‘‘अकेले होते लोग’’ आज के आस्थाहीन समाज में सत्य और अकेलेपन के संकट को और जीवन मूल्यों में आई डगमगाहट को एक संदेशात्मक लहजे में पूरी रोचकता और पढ़ने की जिज्ञासा के साथ परिभाषित करती है। यह पुस्तक समग्र स्वरूप में अकेलेपन से बचाने और बचने पर केन्द्रित है जिसे दो खण्डों में प्रस्तुत किया गया है। दोनों ही खण्ड एकदम अलग शैली में हैं । एक विश्लेषणात्मक है तो दूसरा कथा-व्यथा किन्तु पाठक को इससे कोई व्यवधान नहीं होता अपितु वह इसमें रमता जाता है। यह एक तरह का नवीन प्रयोग है जो आध्यात्मिक चिन्तन को नए स्वरूप में प्रस्तुत करने के साथ ही जाने अनजाने समाज द्वारा समाज के ही केन्द्रीय पात्रों को जीवन का यर्थात कहकर जीवन के हाशिए पर पटक दिए जाने का एक साझा, कालगत और परिवेशगत विश्लेषण है। यह उन लोगों की कहानी है जिनकी अपनी पीड़ा है, अपने दर्द हैं, अपने तर्क हैं, अपने तरीके हैं जिनका सरोकार सम्पूर्ण मानव जाति से है। यह पुस्तक वृद्धावस्था में पसरती असुरक्षा और बेचैनी को सही परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करती है जिस प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है। दुनिया केवल युवा पीढ़ी की ताजगी-स्फूर्ति पर ही नहीं टिकी हुई है- वहाँ उम्र की झुरियाँ के अनुभव भी संबल बनते आए हैं। यह पुस्तक हमें अपने अन्तरतम तक झाँकने की दृष्टि प्रदान करती है और लगता है हम शब्दों के साथ एक यात्रा कर रहे हैं।
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