आत्मा, ईमान और नैतिकता मर जाए तो कितने दिन का शोक रखा जाना चाहिए ?

डा. स्वाति तिवारी
भारतीय संस्कृति में किसी व्यक्ति की मृत्यु पर बारह-तेरह दिन तक मृत्यु का शोक रखा जाता है। इन दिनों आत्मा की शांति के लिए पाठ एवं क्रियाकर्म किए जाने की परम्परा है। पर यक्ष प्रश्न यह है कि व्यक्ति का शरीर नहीं मरे पर आत्मा, ईमान और नैतिकता मर जाए तो कितने दिन का शोक रखा जाना चाहिए और तब मृत्यु आत्मा को जाग्रत करने के लिए कौन-कौन से पाठ क्रियाकर्म किए जाना चाहिए और हमारे देश में यह भी मान्यता है कि अगर असमय मृत्यु हो जाए तो उस अकाल मृत्यु के मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है तब आत्मा प्रेत योनी में भटकती रहती है। पर यहाँ भी यक्ष प्रश्न यह है कि आत्मा के इंसान की अकाल मृत्यु होने पर जो भ्रष्टाचार का भूत अपना शिकंजा फैला कर कार्यालयों में, योजनाओं में, खेलकूद में, न्याय व्यवस्था में, खाई बनाने से लेकर बेचने और खिलाने में भ्रष्टाचार का भूत खुलेआम तांड़व कर रहा है उसकी निवृत्ति के लिए शास्त्रों ने हमें कोई समाधान क्यूँ नहीं दिए? यह भूत अब लोगों को डराता भी नहीं है और भीड़ से, जनता से डरता भी नहीं है। भ्रष्टाचार जाल जीवन के हर क्षेत्र में फैल गया है। यह सियासी लोगों से लेकर खेल अधिकारियों तथा फौज के आला अफसरों तक सुनायी देने लगा है। पिछले कुछ दिनों से भ्रष्टाचार और घोटालों का जो कर्कश शोर चारों तरफ से सुनाई दे रहा है उसमें हमारे ही सुविधा और पारदर्शिता के लिए बनाए गए सूचना का अधिकार कानून का मखौल बना कर रख दिया कभी हमें याद आती है मुम्बई में शहीदों की विधवाओं के लिए निर्मित फ्लेटों में हुए भ्रष्टाचार और बेइमानी के किस्से तो कभी लक्ष्मीबाई नगर दिल्ली की वह इमारत जिसके गिरने से 60 लोग असमय मर गए। इस इमारत में गैर कानूनी तरीके से मंजिलें चढ़ती चली गईं म्यूनिसिपल अधिकारी तथा नक्शा पास करने वाले, पुलिस, प्रशासन सबकी पीठ पर चढ़ कर मंजिल ऊँची होती गयी। अपनी जेब गरम करने वाले उन साठ परिवारों के जलते चूल्हों पर ठण्डा पानी नहीं मौत का मलबा डालकर वहीं बैठ नयी फाइलें नए दस्तावेज बनाने में लगे होंगे? न्यायमूर्ति क्या न्याय करेंगे इस पर भी लोकधन हड़पने वाली सौमित्र सेन चर्चा ने प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं। प्रीमियम लीग में हुई अनियमितताएं हों चाहे खेल गाँव की व्यवस्थाएं हों। ये तो मात्र बानगी है भ्रष्टाचार के भूत के पाँव आसमान से जमीन तक एक हैं। वह इतना प्यासा है कि सातों समन्दर का पानी सोख ले और डकार तक ना ले। इस नैतिक पतन के लिए एक विश्लेषण रिपोर्ट के अनुसार निजी हितों के लिए वोट, पद अथवा फैसले तक का सौदा होने लगा है।
ट्राँसपेरेन्सी इन्टरनेशनल की नवीनतम करप्शन परसेप्शन्स इन्डेक्स में हम थाना ओर रवाण्ड (ङध्र्ठ्ठदड्डठ्ठ) से भी नीचे 87वें स्थान पर हैं। 180 देशों में 87वें स्थान पर खड़े हैं। चाइना भी हमसे ऊपर है। हमारे यहाँ प्रजातंत्र है जबकि चाइना वनपार्टी स्टेट है। पुराने और सयाने लोग कहते हैं राजनीति भ्रष्टाचार की मातृभूमि है वह वहीं से जन्म लेकर फैलने लगता है। और यह फैलाव इतना घातक और इतनी तीव्रता से सबको अपने शिकंजे में जकड़ लेता है जैसे शरीर पर कैंसर की कोई गठान। आज पता लगी और कल उसकी जड़ें यहाँ-वहाँ सब तरफ फैलना शुरू हो जाती। यक्ष का प्रश्न फिर खड़ा हो रहा है कि इस नैतिक, सामाजिक, कैंसर से कैसे लड़ा जाए? कौन सी किमोथेरेपी, कौन सी रेडियोथेरेपी लागू हो जो सोसायटी को इससे बचाया जा सके। भारत में तेजी से नवधनाड्य वर्ग उभर कर सामने आ रह है। यह नवधनाड्यता ही दूसरों को भी अमीर होने के रास्ते दिखाने लगी है। दो साल पहले तक इनडेक्स में भारत 72वें स्थान पर था और देखते-देखते विश्व के भ्रष्ट देशों में हमारे देश का स्थान 87वाँ हो गया। यह पतन सूचांक इस बात की पुष्टि करता है कि हमारा नैतिक, ईमान हमारी आत्मा का पतन तेजी से हो रहा है। भ्रष्टाचार के जो भी मामले उभरकर सामने आते हैं वे भी केवल मीडिया के चाट-मसाले की तरह हो जाते हैं कुछ दिन चर्चा करो बाद में रफा-दफा करो। भ्रष्टाचार के मामलों में लोगों पर मुकदमा चलाने में हमारा रिकार्ड बहुत खराब है। सीबीआई द्वारा दायर नो हजार (9000) मामले विभिन्न अदालतों में लंबित पड़े हैं। मेरी स्मृति में एक भी फैसला ऐसा नहीं आया कि निर्णय हुआ हो। यक्ष का सवाल यही है कि सारे सबूत, सारे गवाह, सारी प्रक्रिया के बाद लंबित क्यों? लम्बित सिर्फ इसीलिए कि भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार संभव हो सके। 9000 में से 2000 से भी अधिक मामले एक दशक से भी ज्यादा समय से लम्बित हैं। सर्वे एवं विश्लेषण कहते हैं कि इनमें से बड़ी संख्या में ऐसे लोक सेवक, उनके सहायक और सहयोगी शामिल हैं जो रंगे हाथों पकड़े गए थे। कई बार लम्बित प्रकरण व्यक्ति की सेवानिवृत्ति के बाद तक हो सकते हैं।
विडम्बना है कि हमारे देश में सजा मिलने की दर 42 प्रतिशत है जो विश्व में सबसे कम है। हमारी कछुए की चाल वाली मंथर न्यायिक प्रक्रिया को दर्शाती है।
लोक सेवा और व्यवस्थाओं के ये यक्ष प्रश्न आत्मा के हनन के संदर्भ में ज्यों के त्यों खड़े हैं। ये विचारशक्ति और कायप्रणाली के साथ-साथ विकास की सही सम्भावनाओं को भी ध्वस्त करते हैं। ये लोगों के विश्वास और प्रजातंत्र में आस्था की भी हत्या करते हैं। आस्था जीवन की आत्मा है जबकि कानून समाज की व्यवस्था एवं नियंत्रण। दोनों का अपना क्षेत्र अपनी महत्ता है। लोक जीवन में, राष्ट्रीयता को इन दोनों के सन्तुलन की आवश्यकता है। पर जब इन्हीं का प्रेत योनी में भटकाव शुरू हो जाए तो हजारों हजार यक्ष प्रश्न उल्टे लटके रहेंगे, पर जवाब कौन देगा? यही प्रश्न है।
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डा. स्वाति तिवारी
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