सामाजिक संबंधों की ऊष्मा की मृत्यु है, अनुराधा की मौत

 स्वाति तिवारी



सीने में जलन आँखों में तूफान-सा क्यों है,


इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है।


क्या कोई नयी बात नज़र आती है हममे,


आईना हमें देख के हैरान सा क्यों है।




शहरयार की इस गज़ल में महानगरों की जीवन शैली से उपजी पीड़ा, निराशाओं के दौर और एक दुखे हुए दिल की तमाम कैफियत मौजूद है। और कल से कैमरे पर देखकर आईना ही नहीं सारा देश हैरान है। ये पंक्तियां बार-बार मस्तिष्क में उथल-पुथल के साथ उभर रही हैं। जाने कितने करोड़ लोगों का शहर दिल्ली। एक भरापूरा आबाद शहर! उसमें दो बहनों ने अकेलेपन या न जाने किस गम में स्वयं को इस हद तक अकेला कर लिया कि सात माह तक वे एक फ्लैट में बन्द रहीं और भागती हुई दिल्ली को कानों कान खबर भी नहीं हुई और जब हुई तो बहुत देर हो चुकी थी। समय रहते अगर भाई प्यार से आकर मिलता या पड़ोसी दरवाजा खटखटाते कि आपको कई दिन से देखा नहीं है। या नौकरी छोड़ने के बाद सहकर्मी सुख-दुख पूछते जानते कि आजकल कहाँ हो? तो शायद अनुराधा या सोनाली की दिल दहलाने वाली कहानी नहीं बनती! पर सारा शहर और शहर के हर शख्स को अपनी ही परेशानियों से फुर्सत नहीं है। फिर लगातार भागता हुआ आदमी भीड़ की अनदेखी करता उससे आगे जाना चाहता है? पड़ोस में कौन रहता है इसकी परवाह किए बगैर। अपनी निजता को इस हद तक प्रायवेसी शब्द की परिधि से घेरता हुआ कि स्वयं उसकी गिरफ्त में पागल हो जाने की हद तक फंसता चला जाता है। क्या यह सामाजिक प्राणी का शनैः-शनैः असामाजिक होते जाना नहीं है? हम कब से ऐसे हो गए कि हंसना, बोलना, रोना, रूठना, मनाना सब भूल गए? लोग कहते हैं हमारे शहर महानगर इस लिए बन रहे हैं कि वे देश के तरक्की पसन्द शहर हैं। प्रति व्यक्ति आय में बेशक राजधानी का स्थान तीसरे नम्बर पर है, लेकिन अवसाद (निराशा) में भी वह बहुत ऊपर है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा कराए गए तीन प्रमुख शहरों के अध्ययन की रिपोर्ट कहती है कि अकेले दक्षिण भारत के चैन्नई शहर में 15.9 प्रतिशत मानसिक रोगी हैं। देश की राजधानी दिल्ली में आठ प्रतिशत लोग तनाव के शिकार हैं, जबकि चंडीगढ़ में पाँच और पुणे में छह प्रतिशत लोगों में तनाव व्याप्त है।

रिपोर्ट कहती है कि अवसाद की दृष्टि से दिल्ली सबसे ऊपर है। आईसीएमआर के अनुसार वर्ष 2001 की अपेक्षा 2010 में मानसिक रोगियों की संख्या में छह प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वर्ष 2001 में 2 प्रतिशत लोग मानसिक बीमार थे जबकि वर्तमान में यह आँकड़ा 8 प्रतिशत है। सर्वेक्षण में 25 से 60 वर्ष आयु वर्ग के लोगों को शामिल किया गया। इसमें 16.3 प्रतिशत महिलाएं और 13.9 प्रतिशत पुरुष तनावग्रस्त पाए गए। इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार इसका प्रमुख कारण एकान्त अवसाद है। यहाँ 55 प्रतिशत कामकाजी लोगों की सामाजिक भागीदारी शून्य है। ये वे लोग हैं जो अन्य शहरों से आकर राजधानी में बस गए हैं। उसके नाते-रिश्तेदार, मित्र, घर जमीन, जो लगाव का आधार होते हैं, वे जाने कब, कहाँ किस मोड़ पर उनसे दूर छूट गए हैं। तनाव की यह स्थिति गंभीर है। इसकी गंभीरता को समझने के लिए अनुराधा की मृत्यु और सोनाली की हालत हमारे सामने है। सारे शहर में ही क्यों पूरे देश में और भी हैं अनुराधाएं और सोनाली जैसी महिलाएं।

सात माह से अवसाद के चलते अंधेरे फ्लेट में बंद अनुराधा उजाले में 18 घंटे भी नहीं जी सकी। परिवार संबंधों की बगीचा होता है जहाँ रोज संबंध नए रूप में सामने आते हैं पर अवसाद तब जड़े जमाता है जब रिश्तों की जड़ों में दीमक लग जाती है। दो बहनें और एक भाई एक सम्पूर्ण परिवार की श्रेणी में आता अगर सामाजिक जीवन और रिश्तों को मानवीय पहलू सक्रियता के साथ बना रहता। दो अविवाहित बहनें माँ-बाप की मौत और भाई के अलगाव के चलते सेक्टर 29 के एक घर में कैद रही क्यों? कारणों की खोज होना जरूरी है। क्या वजह रही होगी कि दो बहनें थी, आत्म निर्भर भी थी। पढ़ी-लिखी होने के बावजूद इस कदर टूट गयीं कि दोनों ने एक ही निर्णय लिया स्वयं को सजा देने का। मनोविकार के इन तथ्यों का खुलासा होना अभी शेष है...... होता रहेगा लेकिन जो मुख्य बात उभर कर आती है वह अवसाद के कारणों की। वे कौन सी परिस्थितियाँ हैं जो अवसाद पैदा करती है? असाध्य बीमारियों के अलावा समाज में मानसिक अवसाद गंभीर रूप धारण करता जा रहा है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश में करीब साढ़े छह करोड़ मानसिक रोगियों में से 20 फीसदी अर्थात सवा करोड़ लोग डिप्रेशन की परेशानी झेल रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के अनुसार विश्व में किशोर उम्र के करीब 12 करोड़ लोग डिप्रेशन की चपेट में है। 2008 में डिप्रेशन को विश्व की चौथी बड़ी बीमारी माना गया था और अनुमान है कि 2020 में यह दूसरी बड़ी स्वास्थ्य समस्या बन जायगी। एक सर्वे कहता है कि डिप्रेशन से जुड़े कारणों से विश्व में 85 हजार मौतें हर साल होती है।

अगर इन आँकड़ों पर गौर किया जाए जो यह स्पष्ट होता है कि डिप्रेशन एक बहुत खतरनाक डिसआर्डर है।

डिप्रेशन एक ऐसा डिसआर्डर है, जिसमें उदासी की भावना किसी इंसान को दो हफ्ते या इससे भी ज्यादा लम्बे वक्त तक घेरे रहती है। यह एक नाकारात्मक तरंग है जिससे जीवन में उसकी दिलचस्पी कम हो जाती है। नेगेटिव फीलिंग्स व्यक्ति के एनर्जी लेवल को लगातार घटा देती हैं जिसका प्रभाव भावनात्मक रूप से होता है जो वर्कप्लेस पर किसी भी व्यक्ति की परफार्मेंस पर भी असर डालता है। बोलचाल में भले ही हम ऐसे लोगों को सनकी, झक्की या विम्हिसिकल कह कर या मूडी कह कर पल्ला झाड़ लेते है पर यह क्लीनिकल डिप्रेशन कहा जाता है, जिसके चलते उदासी, निराशा, मृत्यु के विचार, बैचेनी, मूड खराब रहना, जीवन से कोई उम्मीद न होना, घोर निराशा, अपराध बोध होना, जीवन को बोझ समझना, थकान, अनिद्रा, भूख न लगना, आत्महत्या के विचार, जैसे समस्याएँ सामने आ रहीं हैं।

डाक्टरों का मानना है कि अवसादग्रस्त व्यक्ति के आत्मविश्वास को फिर लौटा लाने की जरूरत होता है, प्यार के माध्यम से उसे अवसाद से निकाला जा सकता है। डिप्रेशन लाइलाज नहीं है। जानकारों का कहना है कि डिप्रेशन को खत्म करने का सबसे बड़ा हथियार आत्मविश्वास ही है। आत्म विश्वास से भरपूर व्यक्ति अपने आस-पास भी सकारात्मक वातावरण बनाता है। जिसकी समाज को जरूरत है।

अवसाद का तात्पर्य मनोविज्ञान के अनुसार मनोभावों सम्बन्धी दुख से होता है। इसे रोग या सिंड्रोम की संज्ञा दी जाती है। आयुर्विज्ञान के अनुसार डिप्रेस्ड व्यक्ति स्वयं को लाचार महसूस करता है। उस व्यक्ति-विशेष के लिए सुख, शांति, सफलता, खुशी, उत्साह यहाँ तक कि रिश्ते भी बेमानी हो जाते हैं। उसे चारों तरफ निराशा तनाव, अशांति और अरुचि प्रतीत होती है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं महिलाएं इसकी ज्यादा और जल्दी शिकार होती हैं। असंतोष डिप्रेशन का एक बड़ा कारण माना गया है। अभिनेत्री मीना कुमारी और परवीन बॉबी भी इसी का शिकार रही हैं।

अनुराधा व सोनाली की दर्दनाक कहानी का यहीं अंत नहीं होता। यह सामाजिक जीवन मूल्यों के टूटने, स्वार्थों की परत चढ़े सामाजिक सम्बन्धों, अकेलेपन की पीड़ा, अविवाहित रह जाने की ‘कसक’, सामाजिक उपेक्षा, पास-पड़ोस के निष्क्रिय व्यवहार, अपनी जड़ों से टूटने की लम्बी कहानी है। मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने की प्रमाणिक कहानी है न केवल संवादहीनता की पीड़ा है यह बल्कि रिश्तों के मर जाने की व्यथा भी है।

ऐसी घटनाएं अपनी प्रायवेसी का ढकोसला करते समाज की अमानवीय होते जाने की प्रक्रिया कही जा सकती है। हमारे गाँव-गली और मोहल्ले का वह पड़ोस बहुत जरूरी है जो कभी आपके दरवाजे पर तो कभी आप उसके दरवाजे पर एक कप दूध या एक कटोरी शक्कर, बेसन लेने आता रहता है। जहाँ महरी, माली, नौकर भी भाभी, काकी, काका-मामा भैयाजी बुलाए जाते रहे हैं - ये सम्बोधन अकेलेपन को दूर करने में सहायक होते है। पक्षी, पौधे, गाय-कुत्ते भी दरवाजे पर प्यार भरी झिड़की के साथ रोटी के निवाले की आस लगाए होते हैं। आइए अपने उसी पारम्परिक मानवीय समाज में लौट चलें।

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डा. स्वाति तिवारी

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