प्रसंग- मुख्तारन माई सुप्रीम कोर्ट का फैसला


सवाल स्त्री अस्मिता का

डॉ स्वाति तिवारी

मुख्तारन माई को एक मार्मिक कहानी मत बनने दीजिए ! बस अब और नहीं ! यह श्रृंखला यहीं थमनी चाहिए । देश कोई भी हो इससे क्या फर्क पड़ता है स्त्री की देह को अपमानित करने का यह सिलसिला हर वर्ग हर समाज और हर देश मेें जारी है । न्याय के नाम होने वाले ऐसे अन्यास के विरूद्ध एक अन्तराष्ट्रीय सामूहिक आन्दोलन की आवश्यकता है और ऐसा न्याय करने वालों के विरूद्ध सामाजिक आन्दोलन की गगन भेदी आवाज उभरे वरना मुख्तारन माई की इतनी लम्बी लड़ाई और हिम्मत बेकार हो जायगी फिर कोई बसमतिया, भंवरी बाई और मुख्तारनमाई इस दुष्कर्म के विरूद्ध आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर पायगी । मुख्तारनमाई को इस वक्त न्याय से ज्यादा जरूरत है एक जनमत की जो उसके मनोबल को उसकी हिम्मत को टूटने से बचा सके अगर मुख्तारन निराश हो गयी तो यह किसी एक मुख्तारनमाई की हार नहीं यह स्त्रीजाति की हार होगी ।

आज मुख्तारनमाई है कल भंवरी बाई थी और उससे पहले बसमतिया को हम भूले नहीं है । बसमतिया के साथ उसके मालिक ने बलात्कार किया था उसी के पास वह बंधुआ मजदूर थी ! विधवा थी । बलात्कार से गर्भवती हो गयी थी । वह चाहती थी कि मालिक उसके बच्चे को अपना नाम दे । मालिक ने मना कर दिया । बसमतिया ने गुहार लगाई, पंचायत बैठाने का आग्रह किया । पंचायत बैठी पर हुआ वही था जो मुख्तारन के साथ हुआ अर्थात अन्याय । फैसला बसमतिया के विरूद्ध गया और वह पतित हो गई । बच्चा नाजायज माना गया जबकि बसमतिया ने चीख-चीख कर कहा था कि बच्चा उसके मालिक का है । पर पंचों ने बसमतिया को गर्भपात का आदेश दिया था उसने इंकार कर दिया तो पंचायत ने उसे सजा-ए-मौत दी । उसे जलाकर मार डाला गया था । इस पंचायत में पंच परमेश्वर के रूप में नहीं आरोपी मालिक स्वयं भी पंच में रूप में शामिल था। एक न्याय की लड़ाई लड़ने वाली गरीब निराश्रित बेइज्जत औरत इज्जतदार पंचों के सामने राख में तब्दील हो गयी ।

इस तरह 1975 मेंे बसमतिया मार डाली गयी थी । इसी तरह बिहार में एक गंभीरा का मामला सामने आया था । 1980 के शुरूआत में परसबीघा और पीपरा काण्ड हुए थे जिसमें औरतों के साथ कानूनन बलात्कार तो नहीं हुआ था लेकिन उनके कपड़े फाड़ डाले थे । बदसलूकी थी । 25 फरवरी 1980 में पीपरागाँव में भी एक लड़की के मामले में गाँव में 14 दलित जिन्दा जला दिए गए थे । मध्यप्रदेश के महिला सामाख्या कार्यक्रम की एक महिला राजू के साथ उसके बेटे की उम्र के लड़के बिसाती ने बलात्कार किया था और गिरफ्तारी के पहले वह भाग गया और राजू के घर जाकर समझौते की बात करने लगा । राजू समझ नहीं पायी थी कि समझौता कैसा घ् बलात्कारी बिसाती ने समझौते का अर्थ इस तरह समझाया था '' मासी तेरा एक बेटा है मेरी उम्र का । मेरी एक माँ है तेरी ही उम्र की । समझौता कैसे नहीं हो सकता घ्





अपने बेटे से कह कि वह मेरी माँ का बलात्कार करें---। मामला बराबर हो जायगा । तब राजूभाई ने उसके गाल पर थप्पड़ जड़ा था आज आवश्यकता है उस थप्पड़ की आवाज को बुलन्द करने की वरना राजू गंभीरा या बसमतिया का संघर्ष बेकार चला जायगा । बात चाहे सहारनपुर की उषा धीमान की हो चाहे राजस्थान की भंवरीबाई की बात किसी एक मुख्तारनमाई की नहीं है यह गाँव गाँव में बिखरे दृश्य है जो पंचायतों के गलत फैसलों से स्त्री के साथ अन्याय को न्याय की मोहर लगाते रहे है । इस बार जो घटना सामने आयी है वह पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के जिले मुजफ़फरगढ़ के छोटे से गाँव मीरवाला की मुख्तारन की पीड़ा है । यह घटना मई 2002 की है जब मस्तोई समुदाय की पंचायत के आदेश पर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था । सेकरई समुदाय की मुख्तारन के नाबालिक भाई शकूर पर आरोप था कि मस्तोई समुदाय की किसी औरत से उसके नाजायज संबंध है, पंचायत बैठायी गयी और पंचायत के फैसले में भाई की करनी की भयानक सजा उसकी बहन मुख्तारन को दे दी गई । मुख्तारन ने इस सामूहिक बलात्कार के विरूद्ध एक लम्बी लड़ाई लड़ी परिणाम स्वरूप 14 लोग गिरफ्तार किए गए जिनमें से आठ को निचली अदालत ने बरी कर दिया और छह को मौत की सजा सुनी दी । मामला लाहौर हाईकोर्ट पहुंचा, जहाँ, से पांच को बरी कर दिया गया और एक को मौत की जगह आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया गया ।

सुप्रीम कोर्ट ने गुरूवार को लाहौर हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए मुख्तारमाई के मुकद्में मेंे छह में से पांच अभियुक्तों को रिहा करने का आदेश दे दिया। घटना यहीं समाप्त होती है पर सवालों की श्रृंखला यहीं से शुरू होती है। इन दस वर्षो के संघर्ष में मुख्तारन नारी साहस का प्रतीक बन कर उभरी थी। वह सामाजिक कार्यकर्ता बनी उसने पाकिस्तानी औरतों केे जीवन को बदलने का सपना देखा। स्कूल खोले। मानवता की सेवा मेें जुटी मुख्तारन हो चाहे रहस्यमयी मौत की शिकार बच्ची आरूषी, चाहे गुण्डों का विरोध कर रही चलती ट्रेन से फंैक दी गई खिलाड़ी सोनू (अरूणिमा) हो या फिर बलात्कार के बाद 35 सालों से कोमा मेंे पड़ी इच्छामृत्यु माँगने वाली नर्स अरूणा यह लड़ाई इन सब की नहीं यह स्त्री की अस्मिता और स्वतंत्रता की लड़ाई है। सामाजिक पंचायतों के अलग-अलग नियम हो सकते है पर विश्व की मानवता के लिए न्याय के लिए हक और अधिकारों के नियम भी अगर पंचायतों की तरह होने लगे है तो हमें मशालें उठा लेनी चाहिए व्यवस्थाओं की लचरता को भस्म करने के लिए ।



डॉ स्वाति तिवारी

ईएन 1/9 चार इमली

भोपाल (म प्र )







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