बच्चों को दीजिए गरिमामय बचपन
न्यू मार्केट हो या कोई और मार्केट, भोपाल हो या कनॉट प्लेस दिल्ली हर शहर के चौराहे पर अक्सर गाड़ी रूकने पर भिक्षा मांगने वाली कुछ युवा महिलाएं गाड़ी के कांच से झांकने लगती है। मन को कचोटने वाली बात यह नहीं है कि वे औरतें भीख मांग रही हैं क्योंकि वे राजस्थान की या आसपास की कुछ ऐसी जातियों की औरतें होती हैं जिनके लिए भिक्षा मांगना उनकी मजबूरी नहीं उनका पेशा है वे भिक्षा के साथ-साथ मौका लगते ही गाड़ी से आपका मोबाइल, लेपटाप, सामान गायब करने की कला भी जानती है। क्योंकि उनका पेशा चोरी है और भिक्षावृत्ति उसका माध्यम है। मन को जो कचोटती है वो बात बेहद मार्मिक है इन औरतों की गोद में एकदम छोटी उम्र का कुपोषित, अफीम चटाकर सुलाया हुआ मरियल पिल्ले जैसे पकड़ा हुआ हाथ मोड़कर पट्टी बंधा पैर पर नकली प्लास्टर चढ़ा बच्चा। हाथ में दूध की खाली बोतल पकड़े गर्दन लटकते बच्चों को सम्भालती ये औरतें गिड़गिड़ाती है ‘बच्चा’ लोगों में दया और सहानुभूति का कारण बनता है और भीख मिल जाती है। क्या ऐसा कोई कानून है जो भीक्षावृत्ति पर रोक लगाए? निश्चय ही कानून है जिसके अनुसार भिक्षावृत्ति कानूनी अपराध है पर हम सब इसके रोकने के लिए कुछ नहीं करते। चौराहे से गुजरती पुलिस की गाड़ी, ट्रेफिक पुलिस, प्रशासन के लोग अनदेखा कर आगे बड़ जाते हैं? क्या हममें से किसी को भी उस नन्हें, अबोले बच्चे के अधिकार का ख्याल आता है?
संविधान का अनुच्छेद 45 आरम्भिक शिशुत्व देखरेख तथा छह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए शिक्षा हेतु उपबन्ध करता है। इसी प्रकार मूल कर्त्तव्यों में अनुच्छेद 51(क) में 86वां संशोधन द्वारा वर्ष 2002 में एक नया खण्ड (ट) अन्तःस्थापित करते हुए कहा गया है कि जो माता-पिता या संरक्षक है, 6-14 वर्ष के मध्य आयु के अपने बच्चों को यथा-स्थिति शिक्षा का अवसर प्रदान करें। संविधान के इन उपबन्धों एवं बच्चों के समग्र विकास को वांछित गति प्रदान करने के लिए 1985 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन महिला और बाल विकास विभाग गठित किया गया है। बच्चों के अधिकारों और समाज के प्रति उनके कर्त्तव्यों का उल्लेख करते हुए 9 फरवरी 2004 को ‘राष्ट्रीय बाल घोषणा पत्र’ को राजपत्र में अधिसूचित किया गया, जिसका उद्देश्य बच्चों को जीवन जीने, स्वास्थ्य देखभाल, पोषाहार, जीवन स्तर, भिक्षा और शोषण से मुक्ति के अधिकार सुनिश्चित कराना है। यह घोषणा पत्र बच्चों के अधिकारों के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय समझौते (1989) के अनुरूप है। जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं।
सवाल यह है कि हम सब माता-पिता की गोद में भिक्षा के लिए उपयोग में लाए जाने वाले इन बच्चों पर तरस खा कर माता-पिता को भिक्षा दे देते हैं पर क्या हम सोचते हैं कि क्या बच्चा भिक्षा मांगना चाहता भी है? क्या यह ना समझ बच्चे का (तपती घूप गर्मी हो या सर्दी-बारिश) शोषण नहीं है? तमाम बाल आयोग, बाल अधिकार, बाल मित्र, बाल संरक्षण गृह बनाने के बावजूद ऐसे बच्चे अब भी अपने अधिकारों और गरिमामय बचपन से वंचित हैं। तीन, चार माह का दुधमूहां बच्चा हो या चार-पांच साल का बच्चा क्या वह स्वयं यह समझ सकता है कि उसके अधिकार क्या हैं? उसका शोषण क्या है? संविधान में उसके लिए प्रावधान क्या हैं? उसके लिए कितने बाल आयोग हैं? बाल संरक्षण गृह हैं? निश्चय ही यह समाज की जवाबदारी है। हम सब की सम्मिलित जवाबदेही है कि हम इन नन्हें बच्चों को एक अच्छा, स्वस्थ्य समाज एवं जीवन स्तर दें। आमतौर पर यह माता-पिता या परिवार की जवाबदारी होती है पर जब माता-पिता भी अपने बच्चे का शोषण इस तरह करते हैं तो यह समाज का नैतिक कर्त्तव्य हो जाता है कि इन बच्चों के नाम पर दो चार रुपयों की भिक्षा के स्थान पर उस बच्चे को इस के शोषण से मुक्त करवाएं। आमतौर पर यह कहा और माना भी जाता है कि ये बच्चे चुराए हुए या उठाए हुए बच्चे होते हैं। पर यह जानते हुए भी सभ्य समाज के सभ्य नागरिक इसे अनदेखा कर गाड़ी आगे बढ़ा देते हैं। आपकी दी हुई भीख बच्चे चुराने की और भीख मंगवाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है। इसे रोकना हमारा दायित्व है।
बच्चों के शोषण में ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात यह है कि बच्चों को शोषण बाहरी व्यक्तियों द्वारा ही नहीं होता बल्कि घरेलू रिश्तेदार यहां तक की माता-पिता की शोषण करते है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि राष्ट्र और समाज की आत्मा, भविष्य के कर्णधार बच्चों के साथ शोषण और मौन शोषण तक होता है। विगत दिनों केन्द्र सरकार की और से बाल शोषण पर कराए गए प्रथम राष्ट्रीय अध्ययन पर गौर करें तो 53.22 प्रतिशत बच्चों को एक या उससे अधिक बार यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है। जिनमें 53 प्रतिशत लड़के और 47 प्रतिशत लड़कियां हैं। एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 22 प्रतिशत बच्चों ने अपने साथ गंभीर किस्म तथा 51 प्रतिशत बच्चों ने दूसरे तरह के यौन शोषण की बात स्वीकारी तो छह प्रतिशत को जबरदस्ती यौनाचार के लिए मारा-पीटा गया। सबसे बड़ी विडम्बना यह कि यौन शोषण करने वालों में 50 प्रतिशत नजदीकी रिश्तेदार थे। मानसिक व उपेक्षापूर्ण शोषण के जो तथ्य सामने आते हैं उनमें हर दूसरे बच्चे ने इसे स्वीकारी। जहां 83 प्रतिशत जिम्मेदार मां-बाप ही होते हैं। अधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक भारत में फिलहाल लगभग पांच करोड़ बाल श्रमिक है। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी भारत में सर्वाधिक बाल श्रमिक होने पर चिन्ता व्यक्त की है। साथ ही यह भी एक कड़वा सच है कि सर्वाधिक बच्चों की चोरी भीख मंगवाने के लिए होती है। क्या कोई आन्दोलन इन बच्चों को शोषणमुक्त करवाने के लिए नहीं चलाया जा सकता? कुपोषण के विरूद्ध, शोषण के विरूद्ध, बच्चों के हक उनके अधिकार देना राष्ट्र के साथ समाज का भी नैतिक दायित्व है। संविधान के अलावा भी भारत में कई ऐसे कानून हैं जो विशेष रूप से बच्चों के लिए हैं पर बच्चा उनसे अनभिज्ञ होता है अतः अभिभावक, शिक्षक, समाज सभी से यह अपेक्षित है कि एक निस्वार्थ भाव से ‘‘बालपन’’ और बाल जीवन को गरिमामय, स्वस्थ्य, शिक्षित बनाएं।
डा.स्वाति तिवारी
ई एन 1/9,चार इमली,
भोपाल
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