भोपाल, 16 सितंबर:भाषाः विष्व की भीषणतम औद्यौगिक दुर्घटना ‘भोपाल गैस रिसन त्रासदी‘ पर स्त्री जीवन गहन भावनाओं का मानवीय पक्ष उजागर करती एक पुस्तक ने यह सवाल उठाया है कि त्रासदी की वजह से विधवा हुई स्त्रियों के लिए ‘विधवा कालोनी‘ बसाई गई, लेकिन लेकिन जिन नागरिकों ने अपनी पत्नियों को खोया, उनके लिए विधुर कालोनी क्यों नहीं बनाई गई।
मनव अधिकारों की पैरोकार एवं नई पीढ़ी सषक्त हस्ताक्षर के रूप में विख्यात लेखिका स्वाति तिवारी की गैस त्रासदी पर स्त्री पीड़ा को उजागर करती नई पुस्तक ‘सवाल आज भी जिन्दा हैं‘ में यह सवाल षिद्दत से उठाया गया है कि विष्व की सबसे बड़ी औद्यौगिक दुर्घटना से जुड़े पहलुओं में महिलाओं की पीड़ा को क्यों अनदेखा किया गया है।
शीघ्र ही किताबघरों में बिक्री के लिए उपलब्ध होने वाली यह पुस्तक एक ऐसा मनोवैज्ञानिक दस्तावेज भी हैं, जो त्रासदी के 27 साल गुजरने के बावजूद न्याय की तारीख का इंतजार करती स्त्रियों की पीड़ा का निचोड़ है, जो पाठकों के मर्म को छूकर कहीं मन में कसक बन जाता है।
स्वति ने इस पुस्तक के माध्यम से स्त्री जीवन की गहन भावनाओं का मानवीय पक्ष उजागर किया है, जो उन जैसी संवेदनषील रचनाकार ही कर सकती है। वह यह सवाल भी बड़ी पीड़ा से उठाती हैं कि आजाद भारत में भी एक अलग विधवा कालोनी भोपाल में बनी, बसी और उपेक्षा से नवाजी गई, लेकिन इस दुर्घटना में जिन नागरिकों ने अपनी पत्नियों को खोया, उनके लिए ‘विधुर कालोनी‘ क्यों नहीं बनाई गई।
उनका सवाल व्यवस्था से भी है कि दुनिया भर की जेलों में ऐसे हजारों अपराधी भरे हुए हैं, जिन्होने मात्र एक हत्या की है, लेकिन दुनिया की किसी जेल में इस दुर्घटना में हुए हजारांे हत्याओं के लिए जवाबदार एक भी अपराधी पिछले 27 सालों में एक दिन के लिए भी बन्द क्यों नहीं हुआ।
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गैस-पुस्तक दो अंतिम
देष की पहली ‘विधवा कालोनी‘ को लेकर यह पुस्तक उस भयानक सामाजिक सच्चाई को उजागर करने का सषक्त प्रयास करती है, जिसमें पुरूष प्रधान समाज में ‘वैधव्य‘ एक अभिषाप की तरह है। जिस प्रकार असत्य एवं अवैज्ञानिक होकर भी जात-पात, भारतीय समाज व्यवस्था की एक जटिल एवं दारूण सच्चाई बनी, उसी प्रकार विधवा की अवधारणा भी असत्य-अवैज्ञानिक एवं स्त्री जीवन की एक भयानक सामाजिक सच्चाई है, जो समाज के आधे जीवन को सदियों से पीडि़त एवं आतंकित करती रही है।
दो एवं तीन दिसंबर 1984 की दरम्यिानी रात हुए गैस हादसे के बारे में यह पुस्तक उन बेबस औरतों के चेहरे हैं, जिन्होने अपना सबकुछ गंवा दिया और बची-खुची जिन्दगी एक अंतहीन संघर्ष के हवाले कर दी। ये वे बेसहारा औरतें हैं, जो गैस रिसाव में बेवा हो गई थीं। वे आज तक उपेक्षा एवं प्रताड़ना का षिकार हैं। पहले परिवार खोया, फिर बीमारी हमेषा के लिए हिस्से में आई, मुआवजे के लिए भिखारियों जैसे हाथ फेलाने पड़े और जब विधवा कालोनी, जिसका नाम अब बदलकर सरकार ने ‘जीवन ज्योति‘ कर दिया है, में जब शाम ढलती है, तो वे सब मवालियों एवं मनचलों के लिए ‘साफ्ट टारगेट‘ होती हैं।
स्वाति मानती हैं कि समाज की इसी कठोर सच्चाई को रेखांकित करने के लिए ही भोपाल त्रासदी की विधवाओं के लिए अलग से कालोनी स्थापित की गई, जबकि पत्नी खो चुके पुरूषों के लिए यह तो मान ही लिया जाता है कि वे फिर अपना घर बसा लेंगे।
दुर्घटना घटते वक्त भोपाल में 2689 गर्भवती महिलाओं का जिक्र करते हुए पुस्तक कहती है कि इस भयावहता की ओर अधिक लोगों का ध्यान नहीं गया कि कितनी महिलाओं ने इसकी वजह से भविष्य में मातृत्व सुख तक गंवा दिया था। इसके बाद हुए प्रसवों में 52 बच्चे मरे हुए पैदा हुए, पैदा हुए 2210 बच्चों में से अधिकांष जन्मजात विकृति के साथ जीने को मजबूर थे। कुल 2698 गर्भावस्थाओं में से 436 गर्भपात के मामले हुए, जिनका औसत 14.7 प्रतिषत था, जबकि गर्भपात का सामान्य प्रतिषत छह से दस होता है।
ःभाषाः अग्नि
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