भोपाल गैस त्रासदी
शुरू करते हैं यूनियन कार्बाइड से। एक ऐसा कलंक, जो हमारे माथे पर गहरा लगा है। हादसे ने तो इसे दुनिया के सामने जाहिर कर दिया। देश भर में हर दिन होने वाले छोटे-मोटे हादसों का सबसे बड़ा प्रतीक, जिनमें हमारी व्यवस्था उतने ही निष्ठुर और निर्मम रूप में सामने आती है, जितनी भोपाल में देखी गई। तारीख क्क् जनवरी ख्क्क्। गैस पीड़ित औरतों की दुनिया में दाखिल होने से पहले मैं इसी कलंकित कार्बाइड को नजदीक से देखना चाहती थी। कीटनाशकों के उत्पादन का यह अमेरिकी उद्योग, जो भारत में मौत का दूसरा भयावह नाम बन गया। हादसे के ढाई दशक गुजरने के बाद वह किस हाल में है, यह जानने के लिए मैंने उसी की तरफ कदम बढ़ाए। मैंने जानबूझकर वहां तक जाने का लबा रास्ता चुना जो पुराने भोपाल से होकर जाता है। भोपाल की इन्हीं सड़कों पर उस रात मौत का तांडव हुआ था। इन पर अब तक लाखांे पन्ने लिखे जा चुके हैं। हजारों लैक एंड व्हाइट तस्वीरें छपी हैं। मैंने भी देखी हैं। लाशों के ढेर। बच्चे, बूढ़े, जवान, औरतें और पशु-पक्षियों की मौत से लबालब तस्वीरें। मौत अपनी फितरत के मुताबिक ही बेरहम थी। उसने हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई वह अमीर हो या गरीब, सब पर एक साथ हमला बोला। उसकी आमद सबसे ज्यादा थी इसी इलाके में।
जब मैं कार्बाइड के करीब जा रही थी तो बाजारांे मंे रौनक दिखी और रास्तांे पर भीड़। सड़क किनारे सजी, भाजी के ठेले लगातार मुश्किल होते यातायात में सदाबहार किरदारों की तरह भीड़ जुटाए खड़े थे। प्रवाहमान समय के साथ जीवन भी चलता है और जीवन की आपाधापी भी। यह हमारी परपरा में समाई उस दार्शनिक अवधारणा की पुष्टि करता है जो कहती है कि ‘समय और जीवन’ कभी थमते नहीं है। त्रासदी के कुछ समय बाद एक अलग ही संदर्भ में एक कवि-कलाकार ने यह कह दिया था कि ‘मरों के साथ मरा नहीं जाता’, उनकी बड़ी लानत-मलानत हुई थी। आज सोचती हूं तो लगता है कि उन्होंने क्या गलत कहा था, केवल एक सत्य ही तो उच्चारित किया था। ड्रायवर ने गाड़ी गलती से कारखाने के मुय दरवाजे से कुछ आगे बढ़ा दी थी। रुककर एक ऑटो वाले से कार्बाइड मंे जाने का रास्ता पूछा। उसने बायां हाथ उठाया और कहा, वो मौत का कारखाना तो पीछे छूट गया है। मैं जैसे ही पीछे मुड़ी तो देखा सामने एक स्मारक है, जो दुनियाभर मंे इस त्रासदी की पहचान बन चुका है।
यह एक आदमकद मूर्ति है। एक मां की मूर्ति, जिसकी गोद मंे एक बच्चा है। बच्चा उसके आंचल को थामे हुए है। इस सफेद मूर्ति को मैंने छूकर देखा, नीचे से ऊपर तक। फिर एक परिक्रमा की। मैं चारों ओर से उसे देखना चाहती थी। मां के अलावा और कोई शिल्प इतना बोलता, झकझोरता और मार्मिक नहीं हो सकता था। ाोपाल की उस भयावह रात का सबसे संजीदा प्रतीक। मुझे इस प्रतिमा में वह युवती नजर आई, जो अपने होने वाले पहले बच्चे के लिए गुलाबी स्वेटर बुन रही थी। अगर उसका बच्चा हो भी जाता तो शायद इसी हाल में वह कहीं भीड़ में भागती हुई मारी जाती। मौत से बचने की कोई सूरत उस रात नहीं थी। यह सोचते हुए मेरी आंखें भीग गईं। मुझे लगा कि मैं ही हूं, जो भागते हुए गैस की शिकार हो गई हूं। मैं ही हूं, जिसके हाथों बना गुलाबी स्वेटर कहीं पीछे छूट गया है।
मैं सोच ही रही थी कि इस प्रतीक को एक मां ही गढ़ सकती है, तभी मेरी निगाह मूर्ति पर उकेरे शदों पर गई, जिस पर लिखा था-रूथ वाटरमेन। पता किया तो मालूम चला कि यह महिला नीदरलैंड से कुछ दिनांे के लिए भोपाल आई थी। यह मार्मिक यादगार उसी की बनाई है। एक स्त्री और मां ही यह कर सकती थी। फिर वह चाहे हिन्दुस्तान की हो या नीदरलैंड की। औरत, औरत होती है। उसकी प्रकृति और उसका अंतस एक-सा ही होता है। वह किसी मुल्क, किसी मजहब और किसी कालंाड की ही क्यों न हो।
इस प्रकार है- ईश्वर सशरीर हम सबके साथ रहना चाहता था किन्तु वह ऐसा नहीं कर सका सो उसने मां बना दी। यहां पर यह मां उन हजारों म हादसे का यह यादगार प्रतीक किसी हरे-भरे उद्यान से घिरे मैदान मंे इज्जत से स्थापित नहीं है, जैसा कि आमतौर पर अंतर्राष्ट्रीय पहचान के ऐसे स्मारक होते हैं। यह मां तो कार्बाइड के ठीक सामने सड़क पर खड़ी है। भारत की उपेक्षित अवाम, खासतौर पर औरतों की एक सबसे असल और सशक्त प्रतीक। न जीते-जी किसी ने परवाह की और मरने के बाद बना दिए गए इस बेजान बुत के साथ भी वही सलूक। हमेशा से यही होता आया है। वे तहजीब के नाम पर परदों के अंधेरों में धकेली जाएं या ऑनर के नाम पर किल की जाएं। उन्हें इज्जत से बराबरी के दर्जे पर रखना अभी एक सुनहरा वाब भर है।
यह मां तो फैक्ट्री के ठीक सामने सड़क पर पिछले ख्ब् सालों से अपना वजूद कायम रखे है, न कोई रखवाली करने वाला है और न ही कोई देखभाल करने वाला। उस मां की देखभाल कौन करेगा जिसकी छाया में हजारों सयताएं पली-बढ़ी हैं। मुझे एक पुरानी राजस्थानी कहावत याद आ गई जिसका हिन्दी तर्जुमा कुछ ांओं के हमकदम है जो एक दिन तथाकथित आधुनिक सयता का शिकार हो गईं लेकिन वह भी मां ही हैं जो जिन्दादिली से जिन्दगी को आगे बढ़ाने की जद्दोजहद में जुटी हैं।
मां की यह प्रतिकृति तो सृजन और जीवन की निरंतरता की अभिव्यक्ति है। शोक और शांति का यह श्वेत-धवल शिल्प एक ऐसा सफेद पन्ना है जिस पर औरत फिर लिख रही है जीवन की इबारत। घर से बाहर निकलती यह औरत उस सृजनधर्मी धरती का प्रतीक है जो आदमी की भूलों को लगातार क्षमा करती रही है।
इस स्मारक से सटी हैं वे इंसानी बसाहटें, जहां गैस ने सबसे पहले हवाओं में दस्तक दी थी। कार्बाइड की मौत उगलती चिमनियांे से महज पांच सौ कदमांे के फासले से शुरू होती हैं ये अभागी बस्तियां। वक्त के साथ तब की झुग्गियांे की बनावट जरूर बदल गई है। कई रहने वाले भी बदल गए। अब यहां एक नई पीढ़ी सांसंे ले रही है। लेकिन यहां की तीन पीढ़ियों को हादसे की स्मृतियां आज भी ताजा हैं।
भोपाल हादसा और हिटलर के गैस चेबर अलग नहीं हैं। प्रथम विश्व युद्ध मंे फास्जीन मस्टर्ड गैस का उपयोग किया गया था। इसी जहरीली गैस ने दूसरे विश्व युद्ध मंे भी कहर ढाया था। हिटलर ने जर्मनी मंे लाखांे यहूदियांे को मौत के घाट उतारने के लिए इसी जहरीली गैस का इस्तेमाल कुयात गैस चेबरों मंे किया था। वही गैस पूरे भोपाल को भी जहरीले चेबर मंे बदल चुकी थी।
इस औरत को शामिल किए बिना कोई भी स्त्री विमर्श असंभव है। यह मूर्ति उस औरत ने बनायी है जिसने अपने अभिभावकों (माता-पिता) को हिटलर के गैस चैबर वाले हादसे में खो दिया था। अनाथ होने की पीड़ा से वह स्वयं पीड़ित थी। उसकी वही पीड़ा एक बार फिर घनीभूत हुई होगी भोपाल गैस त्रासदी की विश्वव्यापी खबर से। जीवन के वे बुरे दिन जो गुजर चुके थे स्मृति पटल पर फिर कसकते हुए उभरने लगे होंगे क्योंकि भोपाल हादसा और हिटलर के गैस चेबर की त्रासदी में समानता थी।
रूथ वाटरमेन के लिए यह मानसिक स्मृति यातना का दौर रहा होगा और जब पीड़ा का आवेग असहनीय हो गया होगा तो वे भारत की यात्रा पर निकल पड़ी होंगी। अपनी स्मृतियांे मंे खोई हुई अपनी मां को यहां किसी मां मंे ढूंढ़ती हुई वे जब यहां अनाथ ममता से मिलीं तो मां की ममता का यह यादगार मूर्त रूप खड़ा कर गयीं। मैंने इन्टरनेट पर ‘रूथ वाटरमेन एण्ड स्टोरी आफ ममता’ पढ़ी थी। यह एक व्यथा कथा है। ममता भी रूथ वाटरमेन की तरह हादसे मंे माता-पिता और भाई को खो चुकी थी। स्मारक मंे ममता मां के पीछे खड़ी है। यह उसकी जिंदगी में आई हादसे की काली रात की कहानी है। तब वह भी अपनी मां के भी पीछे-पीछे थी। कब साथ छूटा पता ही नहीं चला। ममता की मां की बांहांे मंे झूलता वह छोटा बच्चा वहीं मर गया था और रोती बिलखती बेबस मां भी मौत के मुंह मंे समा गई। विडबना यह थी कि ममता को न इलाज का पैसा मिला और न पढ़ाई, इसीलिए वह पढ़ाई नहीं कर सकी। रूथ वाटरमेन अपनी ही तरह की पीड़ा से लड़ती उस नन्हीं ममता से मिली। ममता मंे उसने खुद की तकलीफों को जिंदा देखा तो वही दर्द शिल्प की शक्ल में सामने आया, अब यही स्मारक दुनिया के सामने है। स्मारक के रूप मंे यह गैस त्रासदी की पहचान बन चुकी मां है जो इस पुस्तक में स्त्री विमर्श का ठोस धरातल बनी। कारखाने को पीठ दिखाती इस प्रतिमा पर तीन तरफ शिलालेख लगे हैं, जिन पर उर्दू, अंग्रेजी और हिन्दी मंे लिखा है -
हिरोशिमा नहीं
भोपाल नहीं
हम जीना चाहते हैं
ऐसा विकट हादसा झेलने वाला भोपाल दुनिया में इकलौता शहर है और भोपाल में यह जगह इकलौता ठिकाना है, जहां एक यादगार बननी ही चाहिए थी, जो आने वाली पीढ़ियों को इस भयानक हादसे की लगातार याद दिलाती। लेकिन हम यह नहीं कर सके। हम यह जाहिर नहीं कर सके कि हमने कोई सबक भी सीखे हैं। बल्कि हमने यह जाहिर किया कि हम दिसंबर क्-त्त्ब् के पहले जैसे थे, वैसे ही अब हैं। सुधार में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। जो हो रहा है, होने दीजिए। जो चल रहा है, चलने दीजिए। परवाह मत कीजिए। यहां लोगों की याददाश्त बहुुत कमजोर होती है। वे सब भूल जाएंगे। थोड़े दिन गुस्सा होंगे। गरियाएंगे। फिर किसे याद रहेगा कि क्या हुआ था
क्या हमारी व्यवस्था और व्यवस्थापकों की नजर में गैस हादसा, हर दिन होने वाली दूसरी मामूली दुर्घटनाओं की तरह एक और दुर्घटना थी, जो उस रात घटी? अदालत में तो बाकायदा इस हादसे को इसी दिशा में मोड़ भी दिया गया था।
स्मारक और आसपास की कार्बाइड की दीवारों पर दर्ज तस्वीरों और नारों को पढ़ते हुए मैं -फ् एकड़ के उजाड़ परिसर की तरफ बढ़ती हूं। अब यह ताकतवर अमेरिकी उद्योग परंपरा का एक शानदार कारखाना नहीं बल्कि जहरीले अपशिष्ट से भरा एक कबाड़खाना बन चुका है। अंदर जाने के लिए कोई रोक-टोक नहीं है। कीटनाशकों के उत्पादन के अपने बेहतरीन दौर में शायद ही कोई बाहरी आदमी यहां दूर भी फटक पाता होगा। लेकिन अब इसका काम खत्म हुए ख्स्त्र साल गुजर गए हैं। यह अपने घातक रसायनांे के इस्तेमाल का असर इंसानी चूहों पर देख चुका है।
मुझे अंदर जाते हुए किसी ने नहीं रोका। होमगार्ड के चंद जवान सर्दी में धूप सेंकते हुए इसकी सुरक्षा के लिए तैनात जरूर थे, लेकिन शायद अब किसी को रोकने की जरूरत ही कहां थी? यह हत्यारी फैक्ट्री अपना काम खत्म कर चुकी थी। धातु के इस बेजान ढांचे और खंडहर होती इमारतों में हर तरफ मक्खी और मच्छर जैसे कीटों की भरमार थी, जो बीमारियों की शक्ल में इंसानों के लिए हमेशा से ही मुश्किल पैदा करते रहे हैं। यूनियन कार्बाइड में इन्हीं कीटों के नाश के उपाय किए गए थे, लेकिन उन्होंने इंसानों के साथ ही कीट-पतंगों सा सलूक किया।
मैंने महसूस किया कि हमारे आसपास मंडरा रहे अनगिनत कीट-पतंगे कार्बाइड को चिढ़ा रहे हैं। मैं देख रही थी एक अमेरिकी आसुरी उद्योग का मायाजाली विस्तार करीब त्त् एकड़ जमीन पर। जहरीली दवा बनाने वाली फैक्ट्री के संयंत्र में हर तरफ झाड़-झंखाड़ और गाजर घास का कजा था। यह कारखाना भारत में इस बात का स्मारक जरूर है कि ताकतवरों के आगे अवाम की हैसियत कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा न आजादी के पहले थी, न आजादी मिलने के बाद है! जीते-जी यह कारखाना भी इसी हकीकत की मिसाल था और इसने दिसंबर क्-त्त्ब् में दुनिया के सामने इस हकीकत के सबूत भी दे दिए। बंद होने के बाद उजाड़ शक्ल में भी यह उसी हकीकत की याद दिलाता रहा है। शायद इसीलिए सरकारों को लगा हो कि अलग से किसी स्मारक को बनाने की जल्दी क्या है? लोग सीधे असली स्मारक को ही आकर देख लें। सर्दी की इस सुबह मैं इसी असली स्मारक के सामने थी।
दीवार फांदकर भीतर आने वाले बच्चे, पतंगें उड़ा रहे थे। बकरी चराती एक बूढ़ी औरत, जो सूनी आंखों से कभी कारखाने को देखती है तो मुंह फेर लेती है। कार्बाइड के पड़ोस की ये दो पीढ़ियां कभी भी यहां देखी जा सकती हैं। एक पीढ़ी ने हादसे को देखा और भोगा है और नई पीढ़ी ने सिर्फ सुना है या तस्वीरों और खबरों में देखा-पढ़ा है। कारखाने के बाहर आंखों के सामने हैं घनी बस्तियां। संकरी गलियां। गंदगी। बदइंतजामी। फटेहाली। बेबसी। गलियों में अंदर चहलकदमी कीजिए। किसी घर के दरवाजे पर दस्तक दीजिए। बेमकसद बैठे या टहलते लोगों की शक्लें देखिए। एक अजीब-सा अहसास भीतर कड़वाहट घोल देता है। यहां आकर गैस हादसा पीछे छूट जाता है। सिर्फ सवाल सर्प की तरह फन उठाने लगते हैं। साठ साल से सरकारों के दावे, आश्वासन, नीयत और नीतियों, अरबों की योजनाओं और उनके बेईमान अमल का सबूत है यह सब। एक दिशाहीन देश की दर्दनाक तस्वीर! शाम ढले जब कारखाना देखकर घर लौटी तो सबसे पहले भरे मन से मैंने अपनी डायरी मंे लिखा-
वो अनजान गाय चरती बैठी हैं
भोले बच्चे ले आए हैं पतंग की डोर
डर लगता है मुझको अब...
कहीं ऐसा ना हो...
कहीं से कोई ले आए अनुमति
की कोई नई पतंग,
लिख दे जिस पर हुक्मरान
यहां फिर बनेगी जहरीली गैस
यह कहकर किसी बच्चे को
पकड़ा दे डोर... जाओ उड़ाओ
हजारांे चेहरांे के गुबारे
भरकर मिक या फास्जीन
या कोई और
क्या पता...?
मौत का बवंडर बने उन काले साए और सफेद बादलों से धुएं के मध्य प्रकाश की रेखा यह है कि दुनिया की अधिकांश सयताएं इस आसन्न विभीषिका के प्रति कम से कम अब तो जागरूक हों, पर हम जागरूक कभी नहीं होते। या तो सोते रहते हैं या हड़बड़ी में अति जागरूक हो उठते हैं जो हमें ही नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति है। वह अतिरंजित जागरूकता ही तो थी, जो महत्वाकांक्षा में बदल गई थी और भारत में एक बड़े उद्योग की स्थापना के नाम पर कृषि मंत्रालय ने किसी बड़ी खुशखबरी की तरह बाकायदा अधिकारिक अनुमति पत्र के जरिए कार्बाइड के... एडुआर्डो यूनाज को सूचित किया था कि सरकार यूनियन कार्बाइड को प्रतिवर्ष पांच हजार टन कीटनाशक के उत्पादन का लाइसंेस प्रदान कर रही है। यह वास्तव मंे सेविन के उत्पादन का निमंत्रण था, जिसका अर्थ था इस संयोजन मंे शामिल सभी रासायनिक तत्वांे को भारत मंे ही तैयार किया जा सकेगा। शायद यही वह पहली भूल थी, जिसने भोपाल को मौत के मुंह में ढकेल दिया था।
कपनी ने अपनी सुविधाएं देखीं और सरकार ने एक बड़ा जोखिम अनदेखा कर दिया। अनदेखी का परिणाम ही था कि सरकार ने भोपाल स्थित काली परेड ग्राउंड की पांच एकड़ जमीन यूनियन कार्बाइड को आवंटित कर दी। यही सबसे खतरनाक भूल थी। सरकार ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि इस कारखाने मंे किस तरह के रसायनांे का उत्पादन किया जाएगा। वैज्ञानिकांे और पत्रकारांे की चेतावनी को भी नकार दिया कि ये रसायन मनुष्यांे और प्रकृति के लिए कहीं घातक तो नहीं।
मैंने यूनियन कार्बाइड के परिसर और आसपास के इलाकों को खामोशी से देखा। यह शहर मेरे लिए नया था। लेकिन अलग कुछ नहीं था। आमतौर पर जो अव्यवस्था और लापरवाही सड़कों और ट्रैफिक में देश में करीब-करीब हर जगह नजर आती है, वही बदइंतजामी यहां भी भरपूर थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि इन ख्स्त्र सालों में कम से कम इस इलाके को तो रौनकदार बनाया ही जा सकता था। कुछ तो ऐसा हो सकता था, जो हमारे मानवीय सरोकारों का प्रमाण होता। क्या जापान ने हिरोशिमा और नागासाकी या अमेरिका ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के बरबाद बिंदुओं को नक्शे पर यूं ही रफा-दफा कर दिया था? नहीं। उन्होंने इन जमों को न सिर्फ भरा बल्कि इन जगहों को दुनिया की याददाश्त में लगातार जिंदा भी रखा है ताकि सदियों तक सनद रहे। ाोपाल हादसे के इस इलाके में आकर किसी को लगेगा ही नहीं कि यहां कभी कुछ हुआ था? और यह वो देश है, जो अपने राजनेताओं के मरने पर आलीशान समाधियों और स्मारकों पर अरबों रुपए फूंक देता है, जबकि उनमें से ज्यादातर को लोग अपनी नजरों और यादों से उतार फेंक चुके होते हैं!
औद्योगिक इतिहास की विभीषिका के निर्जीव अवशेष, स्मारक और फैक्ट्री के उजड़े आंगन से बाहर निकली तो शहर की उन्हीं तंग गलियों से लौटते हुए नजरें जीवित अवशेषों को खोज रही थीं। जानती तो थी कि लाखों लोग प्रभावित हुए हैं और त्रासदी से उपजी तकलीफों को आज तक निरंतर झेल रहे हैं। उनके जीवन की दर्दनाक, मार्मिक, रोंगटे खड़े करने वाली कल्पना, जिज्ञासाएं और उनसे जुड़े सवालों से घिरी थी। उनका दायरा जब विस्तृत होने लगा, तब जरूरी लगा चश्मदीद और पीड़ितों से मिलना क्योंकि कल्पनाएं मेरे सवालों के दृश्य तो खड़े करती थी पर जवाब नहीं दे सकती थीं। जरूरी था विचारों के घनीभूत होते धुएं से निकलना और यही वजह थी कि कुछ लोगों से मिलना, बात करना जरूरी होता गया। शहर मेरे लिए नया था अचानक किसी से मिलना संभव नहीं होता।
मुझे गैस पीड़ित मजबूर औरतों के एक जनसंगठन के जाने-माने कार्यकर्ता बालकृष्ण नामदेव के बारे में पता चला। पता चला कि लिली टॉकीज के सामने तिबतियों की स्वेटर की मौसमी दुकानों के पीछे हर रविवार और शुक्रवार एक बैठक होती है। यह है भोपाल का नीलम पार्क। कई सालों से गैस पीड़ित निराश्रित महिलाएं यहां आती रही हैं। बैठक का तय वक्त रहा है-दोपहर बारह से चार बजे। नामदेव ने कहा कि आप वहीं आ जाइए... मुलाकात हो जाएगी। अब मैं उन महिला किरदारों से रूबरू होने वाली थी, जिनके सवाल मेरे लिए सबसे अहम थे। मेरा फोकस उन्हीं पर था। उनके बीच जाते हुए मैं डरी हुई थी। मैं एक ऐसी जमात से मिल रही थी, जो ख्स्त्र साल से सिर्फ उमीदों के आसरे थी, जिनके लिए जिंदगी जीते-जी बोझ बन गई थी। एक हादसे ने उनकी दुनिया को उलट-पलट कर रख दिया था। कैसी दिखती होंगी वे? क्या सोचती होंगी? उनके दिन और रात कैसे कटते होंगे? जो खो गए उन अपनों की यादों के कितने टुकड़े उनके भीतर तैरते रहते होंगे? वे जो बेमौत मारे गए। आंखों के सामने। अपनी गोद में। हंसते-खेलते। मां, बाप, भाई, बहन, पति, बच्चे और पड़ोसी।
(लेखिका जानी-मानी साहित्यकार है)
क डा. स्वाति तिवारी
ई एन 1/9,चार इमली,
भोपाल
मोबाईल नं. - 9424011334
ताकी सनद रहे बाकी
शुरू करते हैं यूनियन कार्बाइड से। एक ऐसा कलंक, जो हमारे माथे पर गहरा लगा है। हादसे ने तो इसे दुनिया के सामने जाहिर कर दिया। देश भर में हर दिन होने वाले छोटे-मोटे हादसों का सबसे बड़ा प्रतीक, जिनमें हमारी व्यवस्था उतने ही निष्ठुर और निर्मम रूप में सामने आती है, जितनी भोपाल में देखी गई। तारीख क्क् जनवरी ख्क्क्। गैस पीड़ित औरतों की दुनिया में दाखिल होने से पहले मैं इसी कलंकित कार्बाइड को नजदीक से देखना चाहती थी। कीटनाशकों के उत्पादन का यह अमेरिकी उद्योग, जो भारत में मौत का दूसरा भयावह नाम बन गया। हादसे के ढाई दशक गुजरने के बाद वह किस हाल में है, यह जानने के लिए मैंने उसी की तरफ कदम बढ़ाए। मैंने जानबूझकर वहां तक जाने का लबा रास्ता चुना जो पुराने भोपाल से होकर जाता है। भोपाल की इन्हीं सड़कों पर उस रात मौत का तांडव हुआ था। इन पर अब तक लाखांे पन्ने लिखे जा चुके हैं। हजारों लैक एंड व्हाइट तस्वीरें छपी हैं। मैंने भी देखी हैं। लाशों के ढेर। बच्चे, बूढ़े, जवान, औरतें और पशु-पक्षियों की मौत से लबालब तस्वीरें। मौत अपनी फितरत के मुताबिक ही बेरहम थी। उसने हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई वह अमीर हो या गरीब, सब पर एक साथ हमला बोला। उसकी आमद सबसे ज्यादा थी इसी इलाके में।
जब मैं कार्बाइड के करीब जा रही थी तो बाजारांे मंे रौनक दिखी और रास्तांे पर भीड़। सड़क किनारे सजी, भाजी के ठेले लगातार मुश्किल होते यातायात में सदाबहार किरदारों की तरह भीड़ जुटाए खड़े थे। प्रवाहमान समय के साथ जीवन भी चलता है और जीवन की आपाधापी भी। यह हमारी परपरा में समाई उस दार्शनिक अवधारणा की पुष्टि करता है जो कहती है कि ‘समय और जीवन’ कभी थमते नहीं है। त्रासदी के कुछ समय बाद एक अलग ही संदर्भ में एक कवि-कलाकार ने यह कह दिया था कि ‘मरों के साथ मरा नहीं जाता’, उनकी बड़ी लानत-मलानत हुई थी। आज सोचती हूं तो लगता है कि उन्होंने क्या गलत कहा था, केवल एक सत्य ही तो उच्चारित किया था। ड्रायवर ने गाड़ी गलती से कारखाने के मुय दरवाजे से कुछ आगे बढ़ा दी थी। रुककर एक ऑटो वाले से कार्बाइड मंे जाने का रास्ता पूछा। उसने बायां हाथ उठाया और कहा, वो मौत का कारखाना तो पीछे छूट गया है। मैं जैसे ही पीछे मुड़ी तो देखा सामने एक स्मारक है, जो दुनियाभर मंे इस त्रासदी की पहचान बन चुका है।
यह एक आदमकद मूर्ति है। एक मां की मूर्ति, जिसकी गोद मंे एक बच्चा है। बच्चा उसके आंचल को थामे हुए है। इस सफेद मूर्ति को मैंने छूकर देखा, नीचे से ऊपर तक। फिर एक परिक्रमा की। मैं चारों ओर से उसे देखना चाहती थी। मां के अलावा और कोई शिल्प इतना बोलता, झकझोरता और मार्मिक नहीं हो सकता था। ाोपाल की उस भयावह रात का सबसे संजीदा प्रतीक। मुझे इस प्रतिमा में वह युवती नजर आई, जो अपने होने वाले पहले बच्चे के लिए गुलाबी स्वेटर बुन रही थी। अगर उसका बच्चा हो भी जाता तो शायद इसी हाल में वह कहीं भीड़ में भागती हुई मारी जाती। मौत से बचने की कोई सूरत उस रात नहीं थी। यह सोचते हुए मेरी आंखें भीग गईं। मुझे लगा कि मैं ही हूं, जो भागते हुए गैस की शिकार हो गई हूं। मैं ही हूं, जिसके हाथों बना गुलाबी स्वेटर कहीं पीछे छूट गया है।
मैं सोच ही रही थी कि इस प्रतीक को एक मां ही गढ़ सकती है, तभी मेरी निगाह मूर्ति पर उकेरे शदों पर गई, जिस पर लिखा था-रूथ वाटरमेन। पता किया तो मालूम चला कि यह महिला नीदरलैंड से कुछ दिनांे के लिए भोपाल आई थी। यह मार्मिक यादगार उसी की बनाई है। एक स्त्री और मां ही यह कर सकती थी। फिर वह चाहे हिन्दुस्तान की हो या नीदरलैंड की। औरत, औरत होती है। उसकी प्रकृति और उसका अंतस एक-सा ही होता है। वह किसी मुल्क, किसी मजहब और किसी कालंाड की ही क्यों न हो।
इस प्रकार है- ईश्वर सशरीर हम सबके साथ रहना चाहता था किन्तु वह ऐसा नहीं कर सका सो उसने मां बना दी। यहां पर यह मां उन हजारों म हादसे का यह यादगार प्रतीक किसी हरे-भरे उद्यान से घिरे मैदान मंे इज्जत से स्थापित नहीं है, जैसा कि आमतौर पर अंतर्राष्ट्रीय पहचान के ऐसे स्मारक होते हैं। यह मां तो कार्बाइड के ठीक सामने सड़क पर खड़ी है। भारत की उपेक्षित अवाम, खासतौर पर औरतों की एक सबसे असल और सशक्त प्रतीक। न जीते-जी किसी ने परवाह की और मरने के बाद बना दिए गए इस बेजान बुत के साथ भी वही सलूक। हमेशा से यही होता आया है। वे तहजीब के नाम पर परदों के अंधेरों में धकेली जाएं या ऑनर के नाम पर किल की जाएं। उन्हें इज्जत से बराबरी के दर्जे पर रखना अभी एक सुनहरा वाब भर है।
यह मां तो फैक्ट्री के ठीक सामने सड़क पर पिछले ख्ब् सालों से अपना वजूद कायम रखे है, न कोई रखवाली करने वाला है और न ही कोई देखभाल करने वाला। उस मां की देखभाल कौन करेगा जिसकी छाया में हजारों सयताएं पली-बढ़ी हैं। मुझे एक पुरानी राजस्थानी कहावत याद आ गई जिसका हिन्दी तर्जुमा कुछ ांओं के हमकदम है जो एक दिन तथाकथित आधुनिक सयता का शिकार हो गईं लेकिन वह भी मां ही हैं जो जिन्दादिली से जिन्दगी को आगे बढ़ाने की जद्दोजहद में जुटी हैं।
मां की यह प्रतिकृति तो सृजन और जीवन की निरंतरता की अभिव्यक्ति है। शोक और शांति का यह श्वेत-धवल शिल्प एक ऐसा सफेद पन्ना है जिस पर औरत फिर लिख रही है जीवन की इबारत। घर से बाहर निकलती यह औरत उस सृजनधर्मी धरती का प्रतीक है जो आदमी की भूलों को लगातार क्षमा करती रही है।
इस स्मारक से सटी हैं वे इंसानी बसाहटें, जहां गैस ने सबसे पहले हवाओं में दस्तक दी थी। कार्बाइड की मौत उगलती चिमनियांे से महज पांच सौ कदमांे के फासले से शुरू होती हैं ये अभागी बस्तियां। वक्त के साथ तब की झुग्गियांे की बनावट जरूर बदल गई है। कई रहने वाले भी बदल गए। अब यहां एक नई पीढ़ी सांसंे ले रही है। लेकिन यहां की तीन पीढ़ियों को हादसे की स्मृतियां आज भी ताजा हैं।
भोपाल हादसा और हिटलर के गैस चेबर अलग नहीं हैं। प्रथम विश्व युद्ध मंे फास्जीन मस्टर्ड गैस का उपयोग किया गया था। इसी जहरीली गैस ने दूसरे विश्व युद्ध मंे भी कहर ढाया था। हिटलर ने जर्मनी मंे लाखांे यहूदियांे को मौत के घाट उतारने के लिए इसी जहरीली गैस का इस्तेमाल कुयात गैस चेबरों मंे किया था। वही गैस पूरे भोपाल को भी जहरीले चेबर मंे बदल चुकी थी।
इस औरत को शामिल किए बिना कोई भी स्त्री विमर्श असंभव है। यह मूर्ति उस औरत ने बनायी है जिसने अपने अभिभावकों (माता-पिता) को हिटलर के गैस चैबर वाले हादसे में खो दिया था। अनाथ होने की पीड़ा से वह स्वयं पीड़ित थी। उसकी वही पीड़ा एक बार फिर घनीभूत हुई होगी भोपाल गैस त्रासदी की विश्वव्यापी खबर से। जीवन के वे बुरे दिन जो गुजर चुके थे स्मृति पटल पर फिर कसकते हुए उभरने लगे होंगे क्योंकि भोपाल हादसा और हिटलर के गैस चेबर की त्रासदी में समानता थी।
रूथ वाटरमेन के लिए यह मानसिक स्मृति यातना का दौर रहा होगा और जब पीड़ा का आवेग असहनीय हो गया होगा तो वे भारत की यात्रा पर निकल पड़ी होंगी। अपनी स्मृतियांे मंे खोई हुई अपनी मां को यहां किसी मां मंे ढूंढ़ती हुई वे जब यहां अनाथ ममता से मिलीं तो मां की ममता का यह यादगार मूर्त रूप खड़ा कर गयीं। मैंने इन्टरनेट पर ‘रूथ वाटरमेन एण्ड स्टोरी आफ ममता’ पढ़ी थी। यह एक व्यथा कथा है। ममता भी रूथ वाटरमेन की तरह हादसे मंे माता-पिता और भाई को खो चुकी थी। स्मारक मंे ममता मां के पीछे खड़ी है। यह उसकी जिंदगी में आई हादसे की काली रात की कहानी है। तब वह भी अपनी मां के भी पीछे-पीछे थी। कब साथ छूटा पता ही नहीं चला। ममता की मां की बांहांे मंे झूलता वह छोटा बच्चा वहीं मर गया था और रोती बिलखती बेबस मां भी मौत के मुंह मंे समा गई। विडबना यह थी कि ममता को न इलाज का पैसा मिला और न पढ़ाई, इसीलिए वह पढ़ाई नहीं कर सकी। रूथ वाटरमेन अपनी ही तरह की पीड़ा से लड़ती उस नन्हीं ममता से मिली। ममता मंे उसने खुद की तकलीफों को जिंदा देखा तो वही दर्द शिल्प की शक्ल में सामने आया, अब यही स्मारक दुनिया के सामने है। स्मारक के रूप मंे यह गैस त्रासदी की पहचान बन चुकी मां है जो इस पुस्तक में स्त्री विमर्श का ठोस धरातल बनी। कारखाने को पीठ दिखाती इस प्रतिमा पर तीन तरफ शिलालेख लगे हैं, जिन पर उर्दू, अंग्रेजी और हिन्दी मंे लिखा है -
हिरोशिमा नहीं
भोपाल नहीं
हम जीना चाहते हैं
ऐसा विकट हादसा झेलने वाला भोपाल दुनिया में इकलौता शहर है और भोपाल में यह जगह इकलौता ठिकाना है, जहां एक यादगार बननी ही चाहिए थी, जो आने वाली पीढ़ियों को इस भयानक हादसे की लगातार याद दिलाती। लेकिन हम यह नहीं कर सके। हम यह जाहिर नहीं कर सके कि हमने कोई सबक भी सीखे हैं। बल्कि हमने यह जाहिर किया कि हम दिसंबर क्-त्त्ब् के पहले जैसे थे, वैसे ही अब हैं। सुधार में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। जो हो रहा है, होने दीजिए। जो चल रहा है, चलने दीजिए। परवाह मत कीजिए। यहां लोगों की याददाश्त बहुुत कमजोर होती है। वे सब भूल जाएंगे। थोड़े दिन गुस्सा होंगे। गरियाएंगे। फिर किसे याद रहेगा कि क्या हुआ था
क्या हमारी व्यवस्था और व्यवस्थापकों की नजर में गैस हादसा, हर दिन होने वाली दूसरी मामूली दुर्घटनाओं की तरह एक और दुर्घटना थी, जो उस रात घटी? अदालत में तो बाकायदा इस हादसे को इसी दिशा में मोड़ भी दिया गया था।
स्मारक और आसपास की कार्बाइड की दीवारों पर दर्ज तस्वीरों और नारों को पढ़ते हुए मैं -फ् एकड़ के उजाड़ परिसर की तरफ बढ़ती हूं। अब यह ताकतवर अमेरिकी उद्योग परंपरा का एक शानदार कारखाना नहीं बल्कि जहरीले अपशिष्ट से भरा एक कबाड़खाना बन चुका है। अंदर जाने के लिए कोई रोक-टोक नहीं है। कीटनाशकों के उत्पादन के अपने बेहतरीन दौर में शायद ही कोई बाहरी आदमी यहां दूर भी फटक पाता होगा। लेकिन अब इसका काम खत्म हुए ख्स्त्र साल गुजर गए हैं। यह अपने घातक रसायनांे के इस्तेमाल का असर इंसानी चूहों पर देख चुका है।
मुझे अंदर जाते हुए किसी ने नहीं रोका। होमगार्ड के चंद जवान सर्दी में धूप सेंकते हुए इसकी सुरक्षा के लिए तैनात जरूर थे, लेकिन शायद अब किसी को रोकने की जरूरत ही कहां थी? यह हत्यारी फैक्ट्री अपना काम खत्म कर चुकी थी। धातु के इस बेजान ढांचे और खंडहर होती इमारतों में हर तरफ मक्खी और मच्छर जैसे कीटों की भरमार थी, जो बीमारियों की शक्ल में इंसानों के लिए हमेशा से ही मुश्किल पैदा करते रहे हैं। यूनियन कार्बाइड में इन्हीं कीटों के नाश के उपाय किए गए थे, लेकिन उन्होंने इंसानों के साथ ही कीट-पतंगों सा सलूक किया।
मैंने महसूस किया कि हमारे आसपास मंडरा रहे अनगिनत कीट-पतंगे कार्बाइड को चिढ़ा रहे हैं। मैं देख रही थी एक अमेरिकी आसुरी उद्योग का मायाजाली विस्तार करीब त्त् एकड़ जमीन पर। जहरीली दवा बनाने वाली फैक्ट्री के संयंत्र में हर तरफ झाड़-झंखाड़ और गाजर घास का कजा था। यह कारखाना भारत में इस बात का स्मारक जरूर है कि ताकतवरों के आगे अवाम की हैसियत कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा न आजादी के पहले थी, न आजादी मिलने के बाद है! जीते-जी यह कारखाना भी इसी हकीकत की मिसाल था और इसने दिसंबर क्-त्त्ब् में दुनिया के सामने इस हकीकत के सबूत भी दे दिए। बंद होने के बाद उजाड़ शक्ल में भी यह उसी हकीकत की याद दिलाता रहा है। शायद इसीलिए सरकारों को लगा हो कि अलग से किसी स्मारक को बनाने की जल्दी क्या है? लोग सीधे असली स्मारक को ही आकर देख लें। सर्दी की इस सुबह मैं इसी असली स्मारक के सामने थी।
दीवार फांदकर भीतर आने वाले बच्चे, पतंगें उड़ा रहे थे। बकरी चराती एक बूढ़ी औरत, जो सूनी आंखों से कभी कारखाने को देखती है तो मुंह फेर लेती है। कार्बाइड के पड़ोस की ये दो पीढ़ियां कभी भी यहां देखी जा सकती हैं। एक पीढ़ी ने हादसे को देखा और भोगा है और नई पीढ़ी ने सिर्फ सुना है या तस्वीरों और खबरों में देखा-पढ़ा है। कारखाने के बाहर आंखों के सामने हैं घनी बस्तियां। संकरी गलियां। गंदगी। बदइंतजामी। फटेहाली। बेबसी। गलियों में अंदर चहलकदमी कीजिए। किसी घर के दरवाजे पर दस्तक दीजिए। बेमकसद बैठे या टहलते लोगों की शक्लें देखिए। एक अजीब-सा अहसास भीतर कड़वाहट घोल देता है। यहां आकर गैस हादसा पीछे छूट जाता है। सिर्फ सवाल सर्प की तरह फन उठाने लगते हैं। साठ साल से सरकारों के दावे, आश्वासन, नीयत और नीतियों, अरबों की योजनाओं और उनके बेईमान अमल का सबूत है यह सब। एक दिशाहीन देश की दर्दनाक तस्वीर! शाम ढले जब कारखाना देखकर घर लौटी तो सबसे पहले भरे मन से मैंने अपनी डायरी मंे लिखा-
वो अनजान गाय चरती बैठी हैं
भोले बच्चे ले आए हैं पतंग की डोर
डर लगता है मुझको अब...
कहीं ऐसा ना हो...
कहीं से कोई ले आए अनुमति
की कोई नई पतंग,
लिख दे जिस पर हुक्मरान
यहां फिर बनेगी जहरीली गैस
यह कहकर किसी बच्चे को
पकड़ा दे डोर... जाओ उड़ाओ
हजारांे चेहरांे के गुबारे
भरकर मिक या फास्जीन
या कोई और
क्या पता...?
मौत का बवंडर बने उन काले साए और सफेद बादलों से धुएं के मध्य प्रकाश की रेखा यह है कि दुनिया की अधिकांश सयताएं इस आसन्न विभीषिका के प्रति कम से कम अब तो जागरूक हों, पर हम जागरूक कभी नहीं होते। या तो सोते रहते हैं या हड़बड़ी में अति जागरूक हो उठते हैं जो हमें ही नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति है। वह अतिरंजित जागरूकता ही तो थी, जो महत्वाकांक्षा में बदल गई थी और भारत में एक बड़े उद्योग की स्थापना के नाम पर कृषि मंत्रालय ने किसी बड़ी खुशखबरी की तरह बाकायदा अधिकारिक अनुमति पत्र के जरिए कार्बाइड के... एडुआर्डो यूनाज को सूचित किया था कि सरकार यूनियन कार्बाइड को प्रतिवर्ष पांच हजार टन कीटनाशक के उत्पादन का लाइसंेस प्रदान कर रही है। यह वास्तव मंे सेविन के उत्पादन का निमंत्रण था, जिसका अर्थ था इस संयोजन मंे शामिल सभी रासायनिक तत्वांे को भारत मंे ही तैयार किया जा सकेगा। शायद यही वह पहली भूल थी, जिसने भोपाल को मौत के मुंह में ढकेल दिया था।
कपनी ने अपनी सुविधाएं देखीं और सरकार ने एक बड़ा जोखिम अनदेखा कर दिया। अनदेखी का परिणाम ही था कि सरकार ने भोपाल स्थित काली परेड ग्राउंड की पांच एकड़ जमीन यूनियन कार्बाइड को आवंटित कर दी। यही सबसे खतरनाक भूल थी। सरकार ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि इस कारखाने मंे किस तरह के रसायनांे का उत्पादन किया जाएगा। वैज्ञानिकांे और पत्रकारांे की चेतावनी को भी नकार दिया कि ये रसायन मनुष्यांे और प्रकृति के लिए कहीं घातक तो नहीं।
मैंने यूनियन कार्बाइड के परिसर और आसपास के इलाकों को खामोशी से देखा। यह शहर मेरे लिए नया था। लेकिन अलग कुछ नहीं था। आमतौर पर जो अव्यवस्था और लापरवाही सड़कों और ट्रैफिक में देश में करीब-करीब हर जगह नजर आती है, वही बदइंतजामी यहां भी भरपूर थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि इन ख्स्त्र सालों में कम से कम इस इलाके को तो रौनकदार बनाया ही जा सकता था। कुछ तो ऐसा हो सकता था, जो हमारे मानवीय सरोकारों का प्रमाण होता। क्या जापान ने हिरोशिमा और नागासाकी या अमेरिका ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के बरबाद बिंदुओं को नक्शे पर यूं ही रफा-दफा कर दिया था? नहीं। उन्होंने इन जमों को न सिर्फ भरा बल्कि इन जगहों को दुनिया की याददाश्त में लगातार जिंदा भी रखा है ताकि सदियों तक सनद रहे। ाोपाल हादसे के इस इलाके में आकर किसी को लगेगा ही नहीं कि यहां कभी कुछ हुआ था? और यह वो देश है, जो अपने राजनेताओं के मरने पर आलीशान समाधियों और स्मारकों पर अरबों रुपए फूंक देता है, जबकि उनमें से ज्यादातर को लोग अपनी नजरों और यादों से उतार फेंक चुके होते हैं!
औद्योगिक इतिहास की विभीषिका के निर्जीव अवशेष, स्मारक और फैक्ट्री के उजड़े आंगन से बाहर निकली तो शहर की उन्हीं तंग गलियों से लौटते हुए नजरें जीवित अवशेषों को खोज रही थीं। जानती तो थी कि लाखों लोग प्रभावित हुए हैं और त्रासदी से उपजी तकलीफों को आज तक निरंतर झेल रहे हैं। उनके जीवन की दर्दनाक, मार्मिक, रोंगटे खड़े करने वाली कल्पना, जिज्ञासाएं और उनसे जुड़े सवालों से घिरी थी। उनका दायरा जब विस्तृत होने लगा, तब जरूरी लगा चश्मदीद और पीड़ितों से मिलना क्योंकि कल्पनाएं मेरे सवालों के दृश्य तो खड़े करती थी पर जवाब नहीं दे सकती थीं। जरूरी था विचारों के घनीभूत होते धुएं से निकलना और यही वजह थी कि कुछ लोगों से मिलना, बात करना जरूरी होता गया। शहर मेरे लिए नया था अचानक किसी से मिलना संभव नहीं होता।
मुझे गैस पीड़ित मजबूर औरतों के एक जनसंगठन के जाने-माने कार्यकर्ता बालकृष्ण नामदेव के बारे में पता चला। पता चला कि लिली टॉकीज के सामने तिबतियों की स्वेटर की मौसमी दुकानों के पीछे हर रविवार और शुक्रवार एक बैठक होती है। यह है भोपाल का नीलम पार्क। कई सालों से गैस पीड़ित निराश्रित महिलाएं यहां आती रही हैं। बैठक का तय वक्त रहा है-दोपहर बारह से चार बजे। नामदेव ने कहा कि आप वहीं आ जाइए... मुलाकात हो जाएगी। अब मैं उन महिला किरदारों से रूबरू होने वाली थी, जिनके सवाल मेरे लिए सबसे अहम थे। मेरा फोकस उन्हीं पर था। उनके बीच जाते हुए मैं डरी हुई थी। मैं एक ऐसी जमात से मिल रही थी, जो ख्स्त्र साल से सिर्फ उमीदों के आसरे थी, जिनके लिए जिंदगी जीते-जी बोझ बन गई थी। एक हादसे ने उनकी दुनिया को उलट-पलट कर रख दिया था। कैसी दिखती होंगी वे? क्या सोचती होंगी? उनके दिन और रात कैसे कटते होंगे? जो खो गए उन अपनों की यादों के कितने टुकड़े उनके भीतर तैरते रहते होंगे? वे जो बेमौत मारे गए। आंखों के सामने। अपनी गोद में। हंसते-खेलते। मां, बाप, भाई, बहन, पति, बच्चे और पड़ोसी।
(लेखिका जानी-मानी साहित्यकार है)
क डा. स्वाति तिवारी
ई एन 1/9,चार इमली,
भोपाल
मोबाईल नं. - 9424011334
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