जितने किरदार, उतनी कहानियाँ
स्वाति तिवारी
भोपाल गैस
त्रासदी यानी औद्योगिक इतिहास में भीषणतम हादसा। हजारों लोगों का उससे प्रभावित
होना और आज तक निरन्तर उसे भोगना। हम मात्र कल्पना ही कर सकते हैं पर कल्पना के
साथ त्रासदी से जुड़े सवालों के दायरे जब विस्तृत होते गये, तब जरूरी लगा कुछ लोगों
से मिलना। पर अचानक किसी से मिलना संभव नहीं होता। गैस त्रासदी से जुड़े एक संगठन
के श्री बालकृष्ण नामदेव से बात की। पता चला लिली टॉकीज के सामने जो स्वेटरवालों
की दुकानें हैं ठीक उसके पीछे पार्क है - नीलम पार्क। वहाँ हर रविवार एवं गुरूवार
को निराश्रित महिलाएं, जो संगठन से जुड़ी हैं, वे सब आती हैं। बारह बजे से चार बजे
तक वहाँ मीटिंग होती है। श्री नामदेव जी ने कहा कि आप वहीं आ जाइए.... मुलाकात हो
जाएगी।
रविवार की वह
दोपहरी जब सारा देश कड़ाके की सर्दी से ठिठुरता हुआ अपने-अपने घरों में आराम फरमा
रहा था या अपने ही घरों के आँगन, छज्जे और ओटलों पर धूप सेंक रहा था..... मैं
पार्क पहुंच गई...... पार्क में बने एक चबूतरे पर कुछ महिलाएं दिखीं, जो श्री
नामदेव के साथ अपनी-अपनी समस्याएं बताने में लगी थीं, धूप का एक टुकड़ा यहाँ भी
फैला था र्र्....... यहीं मेरी मुलाकात हुई 65-70 साल के आस पास की उम्र की
मुन्नी बी से। अब वह अर्जुन नगर में रहती है पर हादसे के वक्त वे सेठी नगर
कॉलोनी की, स्वयं की झुग्गी में रहती थी।
जिस घर में दूध का धंधा था उस घर का मालिक रोटी पानी को मोहताज हो गया था। घर में
सब कुछ था। अल्ला की दुआ से भरापूरा घर था, शौहर शेरखाँ इतना कमाते थे कि दो औरतों
का खर्चा भी आसानी से उठाते थे। हम एक ही चूल्हे पर दोनों मिलकर रोटियाँ पकाती
थीं.... पर परवर दिगार ने जाने कैसा नसीब लिखा कि सब कुछ गैस त्रासदी में बर्बाद
हो गया। उस रात हम अपने घरों में सोए थे, पड़ोस में शादी थी। हल्ले गुल्ले के बीच
देर से ही नींद लगी थी कि अचानक लगा किसी ने चूल्हे में मिर्च झोंक दी है। धुंआ
नाक-कान गले में लगा और तेज जलन उठने लगी, बाहर देखा तो शादी के पंडाल से लोग भाग
रहे थे। चारों तरफ अफरा-तफरी........ हम भी भागे - मैं, मेरी सौत और हमारे शोहर,
सौत के बच्चे मेरे साथ ही भागे थे........... उस रोज या और उसके बाद शेर
खाँ........ खाट से उठ नहीं पाए - पेट में पानी भर जाता था - रोज पेट का पानी
निकलवाना पड़ता था - रोज पानी पेट में भरता, रोज अस्पताल जाते। एक साल बाद शोहर नहीं
रहे, सौत पहले ही नहीं रही..... मेरा अपना बच्चा नहीं था.... पर सोत सुगरा बी का
बेटा....... था उसी के पास रहती थी .....बाद में बेटा बहू सब खत्म हो
गए............ तेरह साल का एक पोता है मेरा, वही संभालता है मुझे...........
हादसा याद करती हँू तो पड़ोसी बीबी जान का घर याद आता है। वहाँ उस दिन एक ही घर में
चार-चार मय्यतें हुई थीं, चार जनाजे निकले थे बीबीजान के घर से। इतना कुछ देखा था
उस हादसे में कि बताना मुश्किल है ...... सड़क पर आदमी ऐसे मरे पड़े थे कि जानवर भी
इस तरह पड़े नहीं देखे हमने.......। लाश देखकर भागते हुए कोई रुकना ही नहीं चाहता
था। जो भागते-भागते गिरा उसे वहीं छोड़ लोग भाग रहे थे...... ऐसा तो कभी किस्से
कहानियों में भी नहीं सुना था, पर देखा है ----- इन आँखों ने..... वापस लौटने पर
घर के खूँटे में बंधी बेबस लाचार गाय, भैंस की फूली हुई लाशें..... पर दुख तो इस बात
का है कि खुद बेबस थे पीड़ा से, दर्द से..... अपनों के दर्द को उनकी मय्यत को आँसू
भी ढंग से नहीं दे पाए।
मुआवजे में
पच्चीस हजार मिले थे। बैंक में रखे हैं, अल्ला कभी हज करवा दें तो जरूर हज पर जाकर
परवर दिगार से पूछूंगी....... ये कैसा इंसाफ था तेरा..... और कौन सा गुनाह था
मेरा........ उम्र के इस पड़ाव पर 13 वर्ष का पोता मजदूरी करके लाता है, उसी से कुछ
पकाती हूँ अपने लिए और उसके लिए। मुन्नी
बी से अलग कहानी है तारा बाई की।
45-48 साल के
आस पास उम्र होगी तारा बाई की। देखने में यूँ तो स्वस्थ दिखती है, पर कहती है, ये
शरीर हट्टा कट्टा तो दिखने का है, बीमार रहती हूँ। हाथ पैर और छाती में दर्द बना
रहता है। थोड़ा दिखने भी कम लगा है। 19 जून 2010 को पति भी साथ छोड़ गए। अब अकेली
हूँ, एकदम निराश्रित। क्या हुआ था उस दिन...... पूछने पर वह कहती है वही हुआ था जो
नहीं होना चाहिए था...... तब मेरी शादी को तीन साल हुए थे.............. चार माह
का पेट था (गर्भ).... नींद नहीं आ रही थी उस दिन..... बीड़ी लपेट रही थी बैठे बैठे।
पड़ोस में शादी थी। हम भी शादी में खाना खाकर आए थे.... पति सो गए थे..... मुझे
खांसी आयी और लगा मिर्च जल रही है पड़ोस में। मैंने दरवाजा खोलकर देखा तो भगदड़
दिखी। पति को उठाया और दोनों चूना भट्टी की तरफ भागने लगे। रास्ते में सूने
कारखाने से जहरीली गैस निकली है - भागने में दम फूलने लगा। रास्ते में गिर पड़ी,
पति ने उठाया पर अगले दिन अस्पताल में मेरा बच्चा गिर गया। वह कोख में ही मर गया।
बस फिर महावारी कभी नहीं आयी ----- मैं फिर माँ नहीं बन पायी। पति ने दूसरी शादी
नहीं की। पर बीमारी झेलते झेलते वो भी चले गए.... गैस ने मुझे बाँझ बना दिया.....
मेरे अजन्मे बच्चे को खा गयी डायन। मैं जिन्दा हूँ पर किसके लिए?
75 साल की
कलावती बाई के हाथ धूज रहे थे, चेहरा बोलने से पहले ही तमतमा उठा था..... नहीं
बताती कुछ...... वो जाने लगी........ नामदेवजी ने कहा, अरे बताओ अपने बारे में।
क्या क्या बताऊँ भैया? कितनी बार बताऊं? 26 बरस से बताने के लिए ही तो जिन्दा हूँ।
वो जाती हुई धूप की टुकड़ी को देखने लगी, फिर उसी पर जाकर बैठ गयी.... फिर हल्के से
मुस्कुराई .....अरे बेटा क्या बताऊं? पति पूरनचंद चालीस साल पहले ही मर गए थे - पर
तीन बेटे थे मेरे। अब दो हैं, एक मर गया... ऐसी गैस निकली... उस दिन कि बस सारा
बरखेड़ी भाग खड़ा हुआ और जब वापस लौटे तो गैस बाहर नहीं फेफड़ों में भरी थी......
आँखों में भरी थी...... अब तक अंदर अपना असर दिखा रही है देखो, कैसी गिल्टी बन गयी
है, छाती के पास।
क्रोध से भरा
चेहरा करुणा से कराह उठा- मेरी नातनी 18 साल की उम्र में चली गयी। एक बेटा भी
गया.....। करम की गति बचपन में माँ मर गयी थी, सोतेली माँ ने मजदूरी करवायी -
तगारी उठाते बचपन से शादी ने मुक्ति दी तो पति चले गए...... तगारी फिर उठा ली.....
तगारी उठाकर पाले मेरे बच्चों की अर्थी उठती देख...... मैं जिन्दा मर गयी। पढ़ा
नहीं पायी बेटों को..... अब वे भी तगारी ही उठाते है....... अब तो दिखता भी नहीं
है मुझे..... पर देखने को बचा भी क्या है? डाक्टर को क्यूं नहीं दिखाती गिल्टी?
पूछने पर वह कहती है, दवा मिले और दवा लगे तो फायदा ना दिखाने का। मुआवजे के
पच्चीस-पच्चीस हजार रुपये तो जाने कब इलाज पर ही खत्म हो गए..... यहाँ तक क्यूँ
आयी हैं? प्रश्न पर वह एक कार्ड दिखाती है - शायद वह पेंशन कार्ड था। मैने केवल
देखा जिस पर लिखा था नाम कलावती उम्र 75 साल पति स्व. पूरनचन्द।
कार्ड वापस
करती हूँ तो एक और महिला कार्ड मेरे हाथ में रख देती है। प्रेमबाई उम्र पच्चास साल
ग्राम बरखेड़ी। उस रात जो मेरे साथ हुआ था मेडम, वो तो सिनेमा में भी नहीं देखा
होगा आपने?
‘‘अच्छा!’’
उस रात जब गैस
रिसी, हम सब भागे.... रास्ते में उल्टी हुई और मेरी तीन महीने की छोरी छूट गयी और
गिर कर मर गयी। सास, ससुर, पति, ननद, देवर भरा पूरा कुनबा था हमारा। सब विधानसभा
वाली सड़क की तरफ भाग रहे थे। दूसरी लड़की भी हादसे के बाद मर गयी। अब निःसंतान हूँ
मैं। मुआवजा मिला?
प्रेमबाई कहती
है, आज तक लड़ रही हूँ, पर नहीं मिला। पति ने दूसरी औरत को रख लिया था। उसी को मेरी
जगह खड़ी कर दिया, पैसा उसे मिला। भगवान दास की वह दूसरी पत्नी भी अब नहीं रही।
केन्द्र सरकार में नौकरी करने वाले इस कर्मचारी की पत्नी का कहना है कि रिश्तेदार
देवर वगैरह अब मुझे फिर परेशान करते हैं क्योंकि प्रापर्टी की एक मात्र दावेदार
हूँ मैं, फिर पति की पेंशन और नौकरी के पैसे भी मिलेंगे। संतान नहीं है, तो देवर
सब हड़पना चाहता है। मुआवजा भले ही ना मिला हो पर मैं आखरी दम तक संगठन के साथ
मिलकर न्याय के लिए लड़ती रहूँगी।
यह हैं
लक्ष्मी बाई, करोंद की रहने वाली। पर नाम बड़े और दर्शन खोटे की तरह लक्ष्मी से
दूर-दूर तक नाता नहीं है। गैस त्रासदी उसके शरीर पर जाने कौन-सा रोग छोड़ गयी जो
कुष्ट रोग की तरह दिखाई देता है, जिसके चलते पति ने परित्याग कर दिया। कहीं अस्थमा
तो कहीं कैंसर बन कर गैस ने जीवन में स्थायी घर बना लिए और साथ ही ले गयी। 55 साल
की आमना बी कभी संगठन में सबसे आगे चलती थी.... पर कैंसर बन कर शरीर में फैली गैस
उम्र से पहले ही मौत बन कर ले गयी। कहते-कहते नामदेव जी का गला भर आया, बोलते
बोलते उनका ध्यान गया। अरे, वो देखिए इमली के नीचे शायद मस्जिद वाली बीबी खड़ी है।
मैंने देखा गौरवर्णी नाजुक सी उस 75 वर्षीय बुरकाधारी स्त्री को। इमली और बरगद के
दो विशाल पेड़ हैं पार्क में, वे उन्हीं के आस पास ढूँढ रही थी अपने संगठन के साथियों
को........ मैं कैमरा खोलती हूँ पर बैटरी खत्म....... एक पल को मुझे कोफ्त होती
है, अपनी लापरवाही पर... बैटरी चार्ज किए बगैर क्यूँ कैमरा उठा लायी। ....झल्लाकर
कैमरा पर्स में डालती हूँ, वे वही बरगद के नीचे बैंच पर बैठ गयी थी। प्रेमबाई कहती
है वही चलना पड़ेगा आपको। मैं उनके पास जाते हुए सोचती हूँ कैमरे में बैटरी नहीं
होने की लापरवाही पर इतनी कोफ्त हुई मुझे...... पर उस लापरवाही का क्या जिसके चलते
जाने कितनी जीवन बैटरियाँ बन्द हो गयीं?
यह मैं
मुखातिब थी, 75 साल की राशिदा सुल्ताना से, जो मरहूम अब्दुल मनान की बेसहारा बीबी
है। मस्जिद के पीछे इमली के पेड़ के नीचे बने घर में रहती है। एकदम अकेली है,
रहन-सहन से लगता है किसी सम्पन्न घर की सदस्य रही होंगी, पास आते ही खुश हो हाथ
मिलाती हैं फिर बताती हैं चेहरे पर आँखों के पास लगी चोंट। आँखों से साफ दिखाई
नहीं देता, रास्ते के पत्थर से टकराकर गिर गयी थी --- उसी से चोट लगी है। दवाई
लगाई। पूछने पर कहती हैं, दवाइयों ने पीछा पकड़ लिया था, अब मैंने ही दवाई लेना छोड़
दिया....... काले बुरके में लिपटी, उम्र के 75 साल की राशिदा बी कहती हैं, अपने
आसपास देखती हैं कोई चाय ला दो, ये मेडम आयी हैं मिलने.... मैं मना करती हूँ, नहीं
मैं चाय पी कर आयी थी - दरअसल मैं उस दर्द को उन्हीं की तरह पीना चाहती थी जो वह
बताते हुए पी रही थी - जहर का एक-एक घूंट -- मुझे लगा चाय या तो बात में विघ्न
डालेगी या फिर गरम चाय की प्याली उस जहर के अहसास को कम कर देगी - कल चाय पीते हैं
साथ में, मैं कल आऊँगी...... अभी बहुत कुछ बाकी है...... के वादे के साथ......।
अगले गुरूवार
को इन्तजार था.... वह आ ही गया... बालकृष्ण जी ने आज बताया आप थोड़ा सा लेट हो
गयीं, वो अभी-अभी चली गयी।
‘‘कौन?’’
शाँतिनगर में
गाँधीनगर स्कूल के पास रहने वाली भूरिया बाई। गले के कैंसर से पीड़ित है और इलाज को
तरस रही है।
इलाज के लिए
तरस रही का क्या अर्थ है? वह गैस राहत चिकित्सालयों में क्यूँ नहीं जा रही है? उसे
पता नहीं है क्या? गैस पीड़ितों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए 33
चिकित्सा केन्द्र स्थापित किये गये हैं, मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की। मुझे
लगा, 26 साल बाद भी इन्हें शायद यह जानकारी नहीं है। मैंने हाल ही में प्रकाशित एक
राहत एवं पुनर्वास स्मारिका को पढ़ा था, जिसमें उल्लेख है कि वर्तमान में 6
चिकित्सालय, 9 डे-केयर यूनिट कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त देशी चिकित्सा पद्धति के
अन्तर्गत आयुर्वेद, होम्योपैथी एवं यूनानी के तीन-तीन कुल नौ औषधालय संचालित हैं।
भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ट्रस्ट का एक मुख्य चिकित्सालय एवं इसकी 8 मिनी यूनिट,
गैस पीड़ितों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने हेतु संचालित हैं। गैस राहत चिकित्सालयों
में प्रतिदिन लगभग 3,477 मरीजों का बाह्यरोगी विभाग में उपचार किया जा रहा है।
शासन द्वारा गैस पीड़ितों की जाँच एवं उपचार निःशुल्क हैं।
मेरी जानकारी
पर संगठन में मौजूद वे पीड़ित स्त्रियाँ मुस्कुराने लगीं - उनके नेता ने कहा, आपकी
जानकारी सरकारी आँकड़ों सहित एकदम सही है, पर समस्या यह है कि वहाँ नॉन गैस पीड़ित
इलाज लेने लगे हैं। दवाइयों का तो सरकारी दवाखानों में सदा टोटा रहता है। उस पर
ओ.पी.डी. चालू कर देने से नान गैस पीड़ित ही वहाँ ज्यादा लाभ ले रहे हैं। आप कभी
गयी हैं वहाँ? उन्होंने प्रश्न किया?
‘‘नहीं।’’
तो फिर आपको
समझना होगा कि एक शानदार भवन, उच्च तकनीकी वाली मशीनें हैं फिर भी गैस पीड़ितों के
इलाज की कमी है। दवाइयाँ कई बार नहीं, ज्यादातर बाहर से ही लानी होती हैं। पाँच
रुपये की पर्ची बनवानी पड़ती है? एक लम्बी प्रक्रिया है।
मैं
आश्चर्यचकित हूँ। उनकी बात सुनकर विश्वास नहीं होता मुझे। विश्वास का आधार भी नहीं
है मेरे पास। मैं तो अपनी उपलब्ध जानकारी से अपडेट थी - मैंने कहीं पढ़ा था, भारत
सरकार द्वारा चिकित्सा पुनर्वास हेतु प्रथम कार्ययोजना में 150.35 करोड़ रुपये
स्वीकृत किए गये थे, जिसके विरूद्ध माह अक्टूबर 2010 तक राशि 4.24 करोड़ रुपये का
व्यय किया गया है, जिसमें राशि रुपये 273.78 करोड़ का अधिक व्यय, राज्य शासन ने
अपने संसाधनों से किया है?
नई नीति
अनुसार अक्टूबर 10 तक कुल 235 मरीजों को जवाहरलाल नेहरू कैंसर हॉस्पिटल ईदगाह
हिल्स, भोपाल में इलाज हेतु भेजा गया है। अब तक कुल 2,628 गैस पीड़ित कैंसर मरीजों
को इलाज हेतु इस अस्पताल में रैफर किया गया है। राशि रुपये 14.78 करोड़ का भुगतान
कैंसर चिकित्सा हेतु किये जाने के बावजूद भूरिया बाई के इलाज की समस्या ज्यों की
त्यों है। चिकित्सालयों में फाइव स्टार होटलों जैसी सुविधा देने वाली तमाम मशीनों
का सुना है, जिसमें एयर कूलर, रेफ्रीजरेटर, एक्वागार्ड, एसी, वाटर कूलर, पंखे,
लेजर प्रिंटर, प्रिंटर कम फैक्स, फीटल मॉनीटर इन्वर्टर, ई.सी.जी., एक्स-रे ट्यूब,
ट्रांसफार्मर आदि सब उपलब्ध हैं - फिर क्यों भूरिया बाई, लक्ष्मीबाई परेशान हैं?
इस प्रश्न पर
वह सहमे हुए से लहजे में कहती हैं, ये सुविधाएं ही तो समस्याएं हैं - इनकी जरूरत
बड़े-बड़े साहेबान को होती है - आम आदमी तो लम्बी लाइन में पर्ची कटवाने में ही
लस्त-पस्त होकर लौट जाता है या लौटा दिया जाता है...... आप समझ रही हैं ना मैं
क्या कहना चाहती हूँ?
समस्या एक हो
तो गिनवायें आपको, यहाँ तो रोज एक नयी समस्या से लड़ना पड़ता है.... अब आप सामाजिक
सुरक्षा पेंशन को ही ले लो?
‘‘क्यों उसमें
क्या होल हैं?’’
आपको पता है
सन् 1984 तक वह मात्र साठ रुपये थी, हम तब से लड़ रहे हैं। श्री नामदेव बताते हैं
कि उन्होंने एक नारा दिया था - ‘‘साठ नहीं, ड़ेढ सौ दो, भीख नहीं, पेंशन दो’’,
वे कहते है फार्म प्रक्रिया इतनी जटिल थी कि ये अनपढ़ निराश्रित महिलाएं क्या
आवदेन कर सकती है? फार्म पर 1250 अस्पताल में डाक्टर से साइन करवाना होते थे... और
डाक्टर के पास फीस लेकर इलाज का तो समय नहीं है। वहाँ गरीबों के फार्म पर साइन
आसान काम लगता है आपको? आपको पता है सामाजिक सुरक्षा पेंशन अब एकीकृत वृद्धावस्था
पेंशन है, जो 150 रुपये के लगभग मिलती है। यह भी लेना हजार पापड़ बेलना जैसा होता
है। इसका नाम सुरक्षा नहीं, समस्या पेंशन होना चाहिए। 26 वर्ष हो गए हैं गैस
त्रासदी को...... कितने लोग मर खप गए यहाँ मुआवजा और पेंशन मांगते-मांगते। पता
नहीं कब सुधरेगी हमारी व्यवस्था प्रणाली और कब भरेंगे उसके होल। एक महिला बताती
है, मेडम आपको नहीं पता डा. अमरसिंह तोमर 48 साल की उम्र में डाक्टर होकर भी मर
गए। उनकी दोनों किडनी खराब हो गई थीं गैस त्रासदी के कारण।
‘‘ओह!’’ ही
बोल पाती हूँ मैं एक दर्दभरी दास्तां पर, शायद हमारे पास अब दवाइयों की तरह शब्दों
की भी कमी होती जा रही है। पर शब्दों के मलहम घावों को भरने में तो मदद नहीं कर
सकते ना। क्या कहूँ? मैं रामकली बाई से, जो पचपन वर्ष की उम्र में चक्कर आने,
पैरों में सूजन बने रहने की शिकायत करती है। वह बताती है, गैस ने उसके पति का लीवर
खराब कर दिया था, वे नहीं रहे। मुआवजे के पैसों में इलाज हुआ और बेटों की शादी
भी..... पर अब उन्हें दवाई की दिक्कत है। कार्ड गुम हो गया है। पर्चा बनवाने में पाँच
रुपये लगते हैं -- और ऊपर से दवाई भी बाहर से ही लानी पड़ती है। कार्ड नया बने तो
शायद कुछ हो। पास बैठी 65 वर्षीय लक्ष्मीबाई, जिन्हें सब गहना भाभी बुलाते हैं,
बताती हैं उस रात का मंजर...... बाजू वाले घर में राम प्रसाद की बेटी की बारात आयी
थी। भाँवर पड़ रही थीं। आधे फेरे में अचानक गैस फैलने से जी मचलाने लगे।
दूल्हा-दुल्हन भी हाथ पकड़ कर भागने लगे। सड़क का यह हाल था कि उस पर कंकड-पत्थर की
तरह लाशें पड़ी थी। स्कूटर, सायकल पड़े थे। पर उठाने चलाने वाले बेजान थे। किसी को
घर, जायदाद, रुपया-पैसा, गहना किसी की चिन्ता नहीं थी। लोग सोते बच्चे छोड़कर भाग
रहे थे.... मौत की घर-घर के दरवाजे पर दस्तक सुनायी दे रही थी.... कहीं वह गैस का
बादल बन कर उतरी तो कहीं सफेद जहरीला धुँआ बन कर। किसी को बन्द उबली गोभी की तीखी
गंध लगी तो किसी को ताजी कटी घास की, पर असर उसका जलती लाल मिर्च जैसा था, आँखों
को जला देने वाला। भागते-भागते लोग एक जगह जहाँ पानी की टेंकर भरी जाती हैं, वहाँ
नल खोल कर पानी के नीचे जमीन पर लोट रहे थे, झटपटा रहे थे। 3 दिसम्बर की सर्दी
वाली रात और शरीर के अन्दर आग लगी हुई थी, जहर भरे धुएँ के साथ, पता नहीं किस जन्म
का पाप था उन सबका, जिन्होंने ये मंजर देखा था..... पर क्या इतने लोग एक ही तकदीर
के एक साथ हो सकते हैं...... कहाँ है वे भविष्यवक्ता, जो सबका अलग-अलग भाग्य
बांचते फिरते हैं..... कोई बताता उस दिन कि उन सबकी राशियां क्या एक ही थीं? इतनी
शादियाँ थीं शहर में, क्या कुण्डलियों के मिलान करने वालों ने कुण्डलियां सही
मिलायी थीं? कहाँ थे भाग्य के शनि-मंगल? क्या सब धरती पर उतर आए थे। भाग्य बांचना
अगर इतना आसान है तो भारतीय जो सबसे ज्यादा भाग्य पर भरोसा करते हैं, उन्हें
प्रशासन की व्यवस्था ने शायद भाग्य के भरोसे ही छोड़ दिया था। ये विमर्श उन औरतों
से हो रहा है जो बीसवीं सदी की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना - भोपाल गैस त्रासदी को
अपनी करम गति को कोसते हुए याद करती हैं.....
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