प्रसंग : उत्तराखण्ड आपदा प्रबंधन
आवश्यकता है जोखिम मूल्यांकन के आत्मविश्लेषण की
स्वाति तिवारी
प्राकृतिक आपदाएं कह कर नहीं आती पर जब आती हैं तो अपना रौद्र रूप दिखाते हुए कहर बरपा जाती हैं। प्राकृतिक आपदा इस बात की याद भी दिलाती है कि मनुष्य ने प्रकृति पर विजय पाने के जो झण्डे-डण्डे गाड़ रखे हैं वे और उनका सच क्या है? मनुष्य का प्रकृति के साथ जो अंतरसंबंध रहा है वह कम होते होते खत्म होता जा रहा है। मनुष्य सिर्फ दोहन ही दोहन कर रहा है प्रकृति को नष्ट कर सीमेंट-कांक्रीट के जंगल उगा रहा है। प्रकृति ने अपना आक्रोश हमें दिखा दिया। पुराने समय में कहावत थी कि मुसीबतें कह कर नहीं आती। आज के वैज्ञानिक युग में जब बाकायदा मौसम विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान जैसी सुविधाएं हैं। ऐसे में भी अगर उत्तराखण्ड जैसी आपदा आती है तो सवाल यह उठता है कि हम कब चेतेंगे? क्या पिछले दसों साल से हर साल इसी मौसम में आने वाली बाढ़ के प्रकोप से बचा नहीं जा सकता। उत्तराखण्ड में ऐसे स्थान निश्चित हैं जहां हर साल बाढ़ का प्रकोप देखा जा सकता है। इसमें उत्तर काशी, चमोली, जोशीमठ मार्ग, रूद्रप्रयाग, गंगोत्री-जमनोत्री, उत्तरकाशी-केदारनाथ मार्ग, देवप्रयाग, टिहरी। बावजूद इसके हमने देखा कि होटलें-धर्मशालाएं, रेस्टहाउस, आवासीय कालोनियों को नदियों के किनारों पर, पहाड़ों के किनारों पर बनाने की अनुमति दे दी जाती है? मौसम विभाग ने भारी बारिश की चेतावनी दे दी थी....। पर ना प्रशासन ने, ना अन्य व्यवस्थाओं ने इस पर ध्यान दिया क्यों? क्या इतनी बड़ी संख्या में यात्री पहुंचेंगे इसकी खबर प्रशासन को नहीं होती। अच्छा होता लोगों को हरिद्वार-ऋषिकेश से ऊपर जाने की अनुमति देने वाली जगह पर इस बात की सूचना को हाईलाइट किया जाता। खतरे की सूचना टी.वी. पर और रास्ते के ग्रामीण क्षेत्रों में दी जाती। विगत दिनों दो देशों की यात्रा की। पहली साउथ अफ्रीका की यात्रा की। यहां का सबसे खूबसूरत शहर केप-टाउन जहां दुनिया भर से पर्यटक टेबल माउण्टेंन देखने आते हैं। यह दुनिया के सात प्राकृतिक आश्चर्यों में से एक है। गाड़ी से एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंचा जाता है। और वहां से केबल कार द्वारा लिफ्ट किया जाता है। जहां से चढ़ाई शुरू होती है वहां पर एवं जहां-जहां से उस पाइण्ट तक पहुंचा जाता है। वहां इस बात के साइन बोर्ड लगे हैं जो पल-पल इस बात की सूचना देते हैं कि रास्ता खुला है या बंद। माउण्टेंन ब्लेक कोहरे से ढकता और खुलता रहता है और रास्ता भी उसी के अनुसार पल-पल की सूचना देता है। टिकट खिड़की बंद कर दी जाती है। नेट पर सूचना उपलब्ध रहती है और टेक्सी चालकों मोबाइल पर सूचना देखी जा सकती है। जान-माल के हादसे को सबसे अहम् माना जाता है। दूसरा देश अमेरिका जहां हेरिकेन कैटरिना चक्रवात आया था। पर अलर्ट इस तरह जारी हुआ था कि बच्चे-बच्चे को सूचना थी। दूसरे देशों को भी सूचना थी। लोगों को अपने घरों में रहने के सख्त निर्देश थे। खाने के सामान, सिलेण्डर, टार्च, मोमबत्ती तक खरीदने के लिए निर्देश थे। लाईट बन्द कर दी जाने की सूचना थी। समुद्र में कोई नाव, कोई जहाज नहीं जा सकता था। जीवन बचाना पहली प्राथमिकता होती है। एक हमारे यहां हजारों के मारे जाने के बावजूद हम सात दिनों तक फसे हुए लोगों को निकालने में भी असफल हैं। सेना न होती तो क्या होता? आश्चर्य इस बात का भी है कि राजनीति का अर्थ कुर्सी है, प्रजा से उसका कोई लेना देना नहीं होता।
उत्तराखण्ड जहां रूडकी जैसा विश्वविद्यालय है। जहां आपातस्थिति के ऊपर अध्ययन किये गये हैं। जिनके आधार पर यह निश्चित किया गया है कि कुछ विशेष यंत्र इन स्थानों पर लगाये जाने हैं - जो पूर्वानुमान लगाकर बता सकते हैं कि संकट आ सकता है। उत्तराखण्ड में अंतरिक्ष रिमोट सेंसिंग सिस्टम और स्पेस रिसर्च एण्ड एप्लिकेशन सेंटर भी स्थित है। दोनों ही सक्षम और समर्थ हैं कि हमें आपदा की सूचना दे सकें। पर हमें अपने आसपास उपलब्ध सुविधाओं का ध्यान दुर्घटना होने के बाद आता है। हम कागजों पर लम्बी चौड़ी नीतियां और प्रबंधन की बाते करते हैं। सेमीनार होते हैं, लाखों रुपये की तैयारी करते हैं, पर ऐनवक्त पर सब धरा रह जाता है।
विगत दिनों कौसी में बाढ़ आयी थी पर हम उससे भी अलर्ट नहीं हुए। केवल दहशत की दहलीज पर खड़े लोगों द्वारा जिंदगी बचाने की जद्दोजहद पर मूक दर्शक बन देखते हैं। हाथ मलते हैं और व्यवस्थाओं को चुपचाप कन्नी काटते या मूंह छुपाते देखते रहते।
सवाल यह है कि आपदा प्रबंधन की राष्ट्रीय नीति का क्या हश्र हुआ यह उत्तराखण्ड में हमने देखा। भारत में अलग-अलग तीव्रता वाली अनेक प्राकृतिक और मानवजन्य आपदाएं आती रहती हैं। लगभग ५८.६ प्रतिशत भू-भाग सामान्य से लेकर बहुत अधिक तीव्रता वाला भूकम्प संभावित क्षेत्र है। ४० मिलीयन हैक्टेयर से अधिक क्षेत्र (१२ प्रतिशत भूमि) बाढ़ और नदी अपरदन संभावित है। ७५१६ किलोमीटर तटीय क्षेत्र में से लगभग ५७०० किलोमीटर क्षेत्र चक्रवात और सूनामी संभावित है। ६८ प्रतिशत कृषि योग्य क्षेत्र सूखा संभावित है और पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्सखलन और हिमस्सखलन की जोखिम बनी रहती है। आपदाओं / रासायनिक जैविक विकिरण और नाभिकीय (सी.बी.आर.एन.) की संभावना रहती है। आपदा जोखिमों की अत्यधिक सुभेद्दताओं जो जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और औद्योगीकरण, उच्च जोखिमों, पर्यावरण असंतुलन और जलवायु परिवर्तन से जोड़ा जा सकता है।
आपदाएं प्रगति में बाधाएं डालती हैं। एक झटके में लम्बे विकास प्रयासों को नष्ट कर देती हैं और प्रगति के पथ पर बढ़ते राष्ट्रों को कई दशक पीछे धकेल देती हैं। छोटी सी भूल भी बड़ा हादसा करवा देती है। जैसा कि भोपाल गैस त्रासदी में देखा गया।
आपदाओं के प्रति मानवीय सरोकारों पर नज़र डाले तों समाज के आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग, बुजुर्ग महिलाएं और बच्चे विशेष रूप से प्रभावित होते हैं।
२३ दिसम्बर २००५ को भारत सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम, को अधिनियमित करके एक उचित कदम उठाया था पर अभी भी हम इसका लाभ नहीं ले पा रहे हैं।
आपदा से तात्पर्य प्राकृतिक अथवा मानवजन्य कारणों से आने वाली किसी ऐसी विपत्ति, दुर्घटना, अनिष्ट और गंभीर घटना से है। जो प्रभावित समुदाय की सहन क्षमता से परे हो।
विदेशों में संचार माध्यमों से यह सूचनाएं अलर्ट करती हैं। भारत में व्यवस्थाओं, प्रशासन में लापरवाही, अनदेखी, आनाकानी और जनता में ओवरनेस किसी भी आपदा के खतरे अथवा संभावना की रोकथाम में असफल होती है।
हमारे गैर-जिम्मेदाराना रूख से परिणामों का न्यूनीकरण नहीं हो पाता। आपदा की तीव्रता और प्रभाव के आकलन में भी हमारी ढुलमुल स्थिति दिखाई देती है। पुनर्वास और पुनर्निर्माण हमारे देख में बाद में महज एक औपचारिता होता है।
प्रत्येक राज्य, संभाग, जिला स्तर पर हमें याद रखना चाहिए। आपदा प्रबंधन की विशिष्ट सतत प्रक्रिया में छह तत्व शामिल हैं। आपदा पूर्व चरण में रोकथाम, प्रशमन और तैयारी शामिल है। जबकि आपदा उपरांत चरण में पुनर्वास, पुनर्निर्माण और सामान्य स्थिति की बहाली शामिल है।
उत्तराखण्ड आपदा संभावित क्षेत्र है। पर व्यवस्थाएं प्रबंधन में पूर्ण रूप से फेल हुई। होना तो यह चाहिए था कि ऋषिकेश से यात्रा को नियंत्रित किया जाना चाहिए। व्यक्तिगत हजारों वाहनों से पहाड़ों को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए ऋषिकेश से पर्यटन विभाग के बड़े निर्धारित वाहन ही भेजे जाने चाहिए। पहाड़ों पर वाहन चलाने के लिए अनुभवी ड्रायवर ही होना चाहिए। पर ऐसा कुछ नहीं किया जाता। एक निर्धारित उम्र से छोटे बच्चों को ले जाने की अनुमति पर भी विचार किया जाना चाहिए।
हम नीति व नियम बना भले ही लेते हैं पर अमल करवाने में हमारी कोई रूचि नहीं होती। भारत को अपने देश में जोखिम मूल्यांकन का एक बार फिर आत्मविश्लेषण करते हुए भौगोलिक पर्यावरणीय सूचना तंत्र को सुदृढ़ बनाने सतत आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता।
(लेखिका समाजशास्त्री एवं साहित्यकार है)
श्व् डा. स्वाति तिवारी
ईएन - १/९ चार इमली, भोपाल
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